शनिवार, 31 जुलाई 2010

नेहवाल को खेल रत्न से बढ़ी अपेक्षाएं!

ओ.पी. पाल
देश की शीर्ष बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल को केंद्र सरकार ने राजीव गांधी खेल रत्न देने का फैसला वाकई भारतीय खिलाड़ियों को प्रोत्साहन देने वाला कदम है जिसे पाने के लिए नेहवाल हकदार भी है। दुनिया की दूसरे नंबर की बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल ने यह मुकाम हासिल करके देश का ही नहीं बल्कि हरियाणा का भी गौरव बढ़ाया है। इस पुरस्कार पाने वाली साइना नेहवाल से देश की और भी अपेक्षाएं बढ़ गई हैं कि वह अपने और अधिक बेहतरीन प्रदर्शन के जरिए दुनिया की नंबर एक खिलाड़ी बनकर उभरे।
अर्जुन पुरस्कार हासिल कर चुकी साइना नेहवाल ने जिस तरह अपने प्रदर्शन में सुधार किया उसी का नतीजा था कि वह अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में एकाग्रता का परिचय देते हुए सफलता की बुलंदियों पर चढ़ती गई और आल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप के सेमीफाइनल में जगह बनाने में तो कामयाब हुई, वहीं उसने लगातार तीन खिताब हासिल करके दुनिया की दूसरे नम्बर की बैडमिंटन खिलाड़ी बनने का भी गौरव हासिल किया। 20 वर्षीय साइना ने गत वर्ष और इस वर्ष ऐसी कामयाबियां हासिल की हैं जो भारतीय बैडमिंटन के इतिहास में पहले कभी नहीं सुनी गई थीं। भारत की बैडमिंटर सुपर स्टार साइना को यदि 'महिला प्रकाश पादुकोण' कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। खेल विशेषज्ञ मानते हैं कि साइना नेहवाल ने बेहतरीन प्रदर्शन करके देश का नाम रोशन किया है और दुनिया की दूसरे नंबर की बैडमिंटन खिलाडी बनी है तो वह राजीव गांधी खेल पुरस्कार पाने की हकदार बन ही चुकी थी। इस पुरस्कार से उसके खेल में ओर भी सुधार आएगा और उसके लिए यह पुरस्कार प्रोत्साहन का काम भी करेगा। 17 मार्च 1990 को जन्मी साइना को इस मुकाम पर पहुंचाने के लिए जिस प्रकार से उसके पिता डा. हरबीर सिंह ने अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया था उस पर साइना नेहवाल खरी उतरी। राजीव गांधी खेल पुरस्कार हासिल करने वाली साइना नेहवाल ऐसी युवा खिलाड़ी बन गई है जिसे सबसे कम उम्र में यह मुकाम हासिल हुआ है। साइना नेहवाल को राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार के लिए चुने जाने पर बैडमिंटन के राष्ट्रीय कोच पुलेला गोपीचंद का कहना है कि साइना नेहवाल जैसी देश की शीर्ष बैडमिंटन खिलाड़ी इस पुरस्कार को पाने की हकदार है, जिससे उसका मनोबल बढ़ सकेगा। गोपीचंद अपनी शिष्या साइना नेहवाल की इस कामयाबी से बेहद खुश हैं। उनका मानना है कि इस पुरस्कार से वह और बेहतर प्रदर्शन करने के लिए प्रोत्साहित होगी। इस पुरस्कार को पाने वाली साइना नेहवाल से अब देश के लोगों की और भी अपेक्षाएं बढ़ गई हैं कि साइना नेहवाल और भी बेहतर प्रदर्शन करके दुनिया की शीर्ष खिलाड़ी बने। यह पुरस्कार मिलने से साइना अपने राष्ट्रीय कोच गोपीचंद के बाद ऐसी दूसरी बैडमिंटन खिलाड़ी बन गई है जिसे देश का सर्वोच्च खेल सम्मान मिल रहा है। वहीं इस पुरस्कार से देश की उभरती बैडमिंटन खिलाड़ियों को भी एक प्रेरणा का काम करेगा, जो नेहवाल की तरह अपने प्रदर्शन से देश का गौरव बढ़ा सकें। राष्ट्रीय कोच गोपीचंद नेहवाल को देश का सर्वोच्च खेल सम्मान मिलने पर स्वयं भी कहते हैँ कि नेहवाल के अलावा जो खिलाड़ी बेहतर फार्म में हैं उनके लिए यह पुरस्कार निश्चित तौर पर प्रेरणा दायक और मनोबल बढ़ाने वाला साबित होगा। अब साइना नेहवाल के सामने विश्व चैंपियनशिप, राष्ट्रमंडल खेल और एशियाई खेलों में अच्छा प्रदर्शन करने की चुनौती है जिससे वह स्वयं भी स्वीकारती हैं। अगले महीने ही 23 से 29 अगस्त तक पेरिस में होने वाली विश्व चैँपियनशिप तथा उसके बाद तीन से 14 अक्टूबर तक भारत की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों में साइना नेहवाल से देश को इसी बुलंद हौंसले के साथ बेहतरीन प्रदर्शन करने की अपेक्षाएं हैं।

पाकिस्तानियों को नहीं अंकलसेम से प्यार!

ओ.पी. पाल
भारत के खिलाफ ही नहीं दुनिया में आतंकवाद को बढ़ावा देने में पाकिस्तान की भूमिका की पुष्टि होने के बावजूद अमेरिका पाकिस्तान को आर्थिक और हथियारों के साथ अन्य सभी तरह की मदद करता आ रहा है। यही नहीं पाकिस्तान की तारीफ में भी अमेरिका कसीदें पढ़ने में पीछे नहीं रहा, लेकिन लगता है कि अमेरिका के पाकिस्तान पर रहमोकरम करने का कोई लाभ नहीं है, क्योंकि हाल ही में हुए एक सवेक्षण ने ऐसे संकेत दिये हैं कि पाकिस्तानी अमेरिका को सबसे बड़ा दुश्मन मानते हुए उससे नफरत करते हैं।
यह सर्वेवेक्षण और किसी ने नहीं बल्कि अमेरिका की ही एक संस्था प्यू रिसर्च ने किया है जिसमें यह बात सामने आई है कि पाकिस्तानी अंकल सेम से प्यार नहीं नफरत करते हैं। यह स्थिति उस समय आई है जब अमेरिका ने पाकिस्तान को दी जाने वाली मदद को लगभग दो गुणा करके अन्य साधन भी मुहैया कराने की नीति अपनानी शुरू कर दी है। बावजूद इसके कि यह दुनिया जानती है कि पाकिस्तान आतंकवाद को बढ़ावा देने में अपनी नीति बदलने को तैयार नहीं है। जबकि अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में पाकिस्तान को अपना सच्चा और मजबूत सहयोगी बताते हुए ढोल पीट रहा है। लेकिन इस सर्वेक्षण से लगता है कि अमेरिका के इस रहमोकरम का पाकिस्तान से कोई लाभ होने वाला नहीं है, जहां ज्यादतर लोग अमेरिका को अपना दुश्मन मानते हैं। अमेरिकी संस्था प्यू रिसर्च के एक सर्वे पर नजर डाली जाए तो एक साल पहले पाकिस्तान के लोग जितना अल कायदा और तालिबान को लेकर चिंतित थे, अब उतने नहीं हैं। अमेरिका पाकिस्तान को आर्थिक और सैन्य मदद के नाम पर पाकिस्तान को अरबों डॉलर दे रहा है, लेकिन अमेरिकी धन पाकिस्तान की छवि का सुधारने में नाकाम है। हालत यह है कि पाकिस्तान के लोगों की नजर में उसकी छवि 22वें नंबर पर है। दरअसल इस संस्था ने अपने सर्वेक्षण में 22 देश ही शामिल किए हैं और पाकिस्तान के लोगों ने अमेरिका को सबसे नीचे रखा है। इसी साल कराये गये इस सर्वेक्षण में जब पाकिस्तानी लोगों से पूछा गया कि तालिबान, अल कायदा और भारत में से पाकिस्तान का सबसे बड़ा दुश्मन कौन है तो सबसे ज्यादा 59 प्रतिशत लोगों ने अमेरिका को पाकिस्तान का सबसे बड़ा दुश्मन माना है, जबकि 53 फीसदी लोगों ने भारत का नाम लिया। 23 फीसदी लोगों ने तालिबान और सिर्फ 3 प्रतिशत ने अल कायदा को खतरा माना। सिर्फ 17 फीसदी लोगों ने अमेरिका के पक्ष में वोट दिया और 11 प्रतिशत लोगों ने उसे एक साझीदार माना है। सिर्फ 8 फीसदी लोग मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय मामलों में बराक ओबामा पर भरोसा किया जा सकता है। इस सर्वे में पाक राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी पर भरोसा करने वालों की संख्या 64 से घटकर अब 20 फीसदी ही रह गई है। यह आलम जब है कि अमेरिका अपनी अफ-पाक नीति के जरिए पाकिस्तान को साथ लेकर चलने की कोशिश में लगा है, लेकिन पाकिस्तानी नागरिक तो इस बात को जरा भी पसंद नहीं कर रहे हैं। 65 प्रतिशत लोगों ने अफगानिस्तान में अमेरिका की दखलअंदाजी को गलत ठहराया और कहा कि अमेरिका और नैटो सेनाओं को अफगानिस्तान से फौरन चले जाना चाहिए। सर्वे में यह बात भी सामने आई जिसमें पाकिस्तानी तालिबान को बुरा मानते। केवल 25 फीसदी लोगों को लगता है कि अगर तालिबान दोबारा अफगानिस्तान पर काबिज हो गया तो पाकिस्तान का नुकसान होगा। हालांकि इसे अच्छा बताने वाले भी 18 प्रतिशत ही लोग मिले, लेकिन 57 फीसदी लोगों ने कहा कि इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। पिछले साल 73 फीसदी लोगों ने तालिबान को पाकिस्तान के लिए बड़ा खतरा बताया था। अब इनकी तादाद घटकर 54 रह गई है. अल कायदा को खतरा मानने वालों की तादाद पिछले साल 61 प्रतिशत थी लेकिन अब सिर्फ 38 फीसदी लोग ऐसा मानते हैं। हालांकि विश्व समुदाय में मौजूदा समय में तालिबान और अलकायदा की छवि खराब है जिसमें आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान भी अपनी छवि सुधारने में नाकाम रहा है।

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

राष्ट्रमंडल खेलों में घोटाले से घिरी सरकार!

ओ.पी. पाल
देश की राजधानी में तीन से 14 अक्टूबर को होने वो 19वें राष्ट्रमंडल खेलों पर जहां पहले से आतंकवाद के खतरे के मंडराते साये के कारण सुरक्षा को लेकर सवाल उठते रहे हैँ, वहीं खेल परियोजनाओं मे निर्माण कार्य में भारी अनियमितताओं का खुलासा करने वाले केंद्रीय सतर्कता आयोग यानि सीवीसी ने इस खुलासे के बाद कथित घोटाले की चौतरफा उठती उच्चस्तरीय मांग को देखते हुए एमसीडी के कुछ अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्ष्टाचार का मामला दर्ज कराने और निर्माण कार्य के लिए टेंडरों में हुए घपले की नए सिरे से जांच कराने के लिए सीबीआई से सिफारिश की है। देश के सम्मान से जुड़े राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन से पहले कथित घोटाले के खुलासे ने केंद्र और दिल्ली सरकार के साथ ही राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है।
केंद्रीय खेल मंत्री एमएस गिल भले ही राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों को लेकर यह दावा कर रहे हों कि 18 में से 16 साइट बनकर पूरी तरह तैयार हो चुकी है, लेकिन इन्हीं साइटों में 15 साइटों की जांच के बाद केंद्रीय सतकर्ता आयोग ने राष्टÑमंडल खेलों की तैयारियों के लिए निर्माण के लिए 14 परियोजनाओं में पाई गई भारी अनियमितता और निर्माण कार्यो की गुणवत्ता पर सवाल खड़े कर दिये हैं, जिसके कारण केंद्र व दिल्ली सरकार के साथ ही आयोजन समिति के अलावा सरकारी निर्माण एजेंसियों को कटघरे में खड़ी होती नजर आने लगी हैं। सीवीसी ने निर्माण कार्य में कथित घोटाले का खुलासा करने के बाद खेल परियोजनाओं के लिए टेंडर जारी करने में हुई अनियमितताओं के सिलसिले में एमसीडी के कुछ अधिकारियों के खिलाफ सीबीआई से भ्रष्टाचार का मामला दर्ज करने की भी सिफारिश कर दी है। सूत्रों के अनुसार सतर्कता आयोग ने इस अनियमिता की शिकायत सीबीआई को भी भेज दी है, जिससे सम्भावना है कि राष्ट्रमंडल खेलों की परियोजनाओं में हुए घोटाले सीबीआई के जांच दायरे में भी आ जाएंगे। सीबीआई से अज्ञात एमसीडी अधिकारियों के खिलाफ कथित आपराधिक षड्यंत्र के मामले में जांच करने को भी कहा गया है। सीवीसी ने अपनी जांच में पाया है कि खेल परियोजनाओं के निर्माण में सबसे कम कीमत लगाकर अनुबंध हासिल करने वाले ठेकेदार को बाद में मुनाफा कमाने की नीयत से कथित तौर पर आंकड़े बदलने की इजाजत दे दी गई। दरअसल सीवीसी के मुख्य तकनीकी जांच प्रकोष्ठ ने 14 परियोजनाओं में भारी पैमाने पर भ्रष्टाचार संबंधी रिपोर्ट बनाई है। सीवीसी ने मुख्य सतकर्ता अधिकारियों को सभी टेंडरों की नए सिरे से जांच के लिए कहा है, जिसमें भ्रष्टाचार के मामले का दायरा बढ़ने की आशंका है। पूर्व खेल मंत्री एवं भाजपा महासचिव विजय गोयल का कहना है कि राष्ट्र के सम्मान से जुड़े राष्ट्रमंडल खेलों की अभी तक तैयारियां पूरी नहीं हैं और जो भी तैयारियां की जा रही हैं उनमें सीवीसी ने गुणवत्ता पर सवालिया निशान लगाते हुए भारी अनियमितता होने का खुलासा कर ही दिया है। गोयल का कहना है कि जब राष्ट्रमंडल खेलों पर आतंकी साया छाया हो तो सीवीसी की रिपोर्ट के बाद घटिया निर्माण के कारण दुर्घटनाओं का खतरा भी होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। उनका कहना है कि खेलों की तैयारियों के नाम पर सरकारी एजेंसियों ने जिस प्रकार का खेल किया है उससे निर्माण कार्य की कीमत तो बढ़ी ही हैँ वहीं अनुभवहीन निर्माण एजेंसियों को भी परियोजनाओं का ठेका दिया गया है। उन्होंने बताया कि राष्ट्रमंडल खेलों में अनियमितताओं और खेलों की तैयारियों में हो रहे विलम्ब के लिए आयोजन समिति के अलावा केंद्र तथा दिल्ली सरकार पूरी तरह से जिम्मेदार है। निर्माण एजेंसियों ने ठेकेदारों को मुनाफा कमाने के लिए राजधानी में बनी बनाई सड़कों, फुटपाथों और खंभों आदि को तोड़ने का काम किया है और आज की स्थिति में दिल्ली के सभी मार्ग खुदाई के कारण दयनीय स्थिति में है। गोयल ने कहा कि गेम के बाद सभी प्रकार की अनियमितताओं की न्यायिक जांच होना जरूरी है। राष्ट्रीय जनता दल और लोक जनशक्ति पार्टी ने राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े निर्माण कार्यों में कथित अनियमितताओं की उच्च स्तरीय जांच की मांग की। ये निर्माण कार्य राजधानी में कई सरकारी विभागों की अच्र से कराए जा रहे हैं। राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव का कहना है कि राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े निर्माण कार्यों में भारी घपला और भारी लूट एक सुनियोजित अनियमितता है, जिसका खुलासा केंद्रीय सतर्कता आयोग की जारी रिपोर्ट में सामने आ गया है। लालू यादव ने इस पूरे मामले की उचित जांच की मांग करते हुए कहा कि अपराधियों को हवालात में पहुंचाया जाना चाहिए, क्योंकि यह राष्ट्र के सम्मान का मामला है। लोजपा के अध्यक्ष रामविलास पासवान ने भी कथित अनियमितताओं की उच्चस्तरीय जांच की वकालत की है। कांग्रेस सांसद जगदम्बिका पाल ने कहा कि यदि निर्माण कार्य में अनियमितता हुई है तो उसकी जांच होनी चाहिए, क्योंकि कांग्रेस और सरकार भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों की कभी हिमायत करने वाली नहीं है।

बुधवार, 28 जुलाई 2010

आतंकवाद:पाक को नसीहत या दोहरी नीति!

ओ.पी. पाल
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने भी आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान को नसीहत देते हुए इस बात को दोहराया है कि यह कभी बर्दाश्त नहीं होगा कि वह भारत और अफगानिस्तान या दुनिया के किसी अन्य देश में आतंकवाद को बढ़ावा दे। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की इस नसीहत में कितना दम है यह तो ब्रिटेन के अधिकारियों ने यह कहकर जाहिर कर दिया है कि प्रधानमंत्री कैमरन का मकसद पाकिस्तान पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाना नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि पाकिस्तान आतंकवादी गतिविधियों का केंद्र साबित होने के बावजूद अमेरिका या फिर ब्रिटेन आतंकवाद के मामले पर पाकिस्तान के खिलाफ खुलकर क्यों नहीं बोलना चाहते। विशेषज्ञ मानते हैं कि जिस नीति से अमेरिका व ब्रिटेन जैसे देश आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ना चाहते हैं उसके लिए नसीहत या दबाव के बजाए खासकर पाकिस्तान के प्रति अपनी नीति बदलने की जरूरत है।
भारत के दौरे पर आए ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेंविड कैमरन का जैसे ही बंगलूरू से आतंकवाद पर पाकिस्तान को नसीहत देने वाला एक बयान आया तो पाकिस्तान ने भी तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि पाकिस्तान आतंकवाद से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है। पाकिस्तान के विदेश वि•ााग के प्रवक्ता अब्दुल बासित का कैमरन के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहना था कि पाक मानता है कि इस तरह की रिपोर्टों को अनावश्यक तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए और न ही इससे अन्य मुद्दों से ध्यान भटकाने की जरूरत है। हालांकि अब्दुल बासित ने कैमरन पर पलटवार करते हुए यह भी कहा कि पाकिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किसी भी तरह की आतंकी गतिविधि को संचालित करने के लिए नहीं होने दिया जाएगा, इसलिए पाकिस्तान को बेवजह चिंता की जरूरत नहीं है। जैसे ही पाकिस्तान की पलटवार प्रतिक्रिया आई तो ब्रिटेन भी अपने बयान से पलटता नजर आया और कहा जाने लगा कि प्रधानमत्री कैमरन का संदेश था कि पाकिस्तान को आतंकवादी संगठनों के कामकाज के बंद करने के लिए और प्रयास करने की जरूरत है। यदि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कैमरन के बयान को देखें तो उन्होंने कहा कि वे चाहते हैं कि पाकिस्तान में मजबूत लोकतंत्र हो, लेकिन हम ऐसे किसी विचार का अनुमोदन नहीं कर सकते कि पाकिस्तान दोहरी नीति अपनाए, जिसमें भारत, अफग़ानिस्तान या दुनिया के किसी भी हिस्से में आतंकवाद को निर्यात करने की अनुमति दी जाए। उनका यह भी तर्क रहा कि जो लोकतांत्रिक सरकारें विकसित दुनिया का हिस्सा बनना चाहतीं हैं उनका आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले गुटों से कोई संबंध नहीं होना चाहिए। हालांकि उन्होंने यह भी साफ किया है भारत के पाकिस्तान और अफगानिस्तान से संबंधों का ब्रिटेन से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन दोनों पड़ोसी देशों में स्थिरता और आतंकवाद से निजात पाने की भारत की ख़्वाहिश का ब्रिटेन समर्थन करता है। विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा नहीं है कि अमेरिका या ब्रिटेन आतंकवाद को खत्म करना नहीं चाहते, बल्कि ये दोनों देश अफगान में तालिबान के खिलाफ अपने संघर्ष में भारत और पाकिस्तान दोनों देशों को अपने साथ रखना चाहते हैं। यही कारण है कि ये पाकिस्तान पर आतंकवाद को खत्म करने या आतंकी संगठनों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए उतना दबाव नहीं डाल पा रहे हैं जितना होना चाहिए। भारत-पाकिस्तान संबन्धों के जानकार कमर आगा का कहना है कि अमेरिका और ब्रिटेन पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए इसलिए भी हिचकिचा रहे हैं कि यदि पाकिस्तान पर ज्यादा जोर डाला गया तो वह चीन की गोद में जाकर बैठ सकता है। इसलिए इस बात की आवश्यकता है कि अमेरिका और ब्रिटेन तथा जो आतंकवाद के खिलाफ लड़ रहे यूरोपियन देश हैं उन्हें अपनी नीति में आमूलचूल परिवर्तन करने की जरूरत है। कमर आगा मानते हैं कि पिछले कुछ सालों से यूरोपियन देशों में इतना बदलाव तो आया कि वह अब पाक का नाम लेकर आतंकवाद के खिलाफ बोलने लगे हैँ अन्यथा उससे पहले ऐसा कभी नहीं देखा गया। मुंबई के 26/11 के आतंकी हमले के बाद भारत ने भी पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए विश्व समुदाय से आग्रह किया ताकि पाकिस्तान में बैठे लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों के खिलाफ पाकिस्तान ठोस कार्यवाही कर सके, लेकिन पाकिस्तान ऐसा कोई सबूत सामने नहीं ला सका, जिसके कारण यह कहा जा सके कि पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ कार्यवाही करने के लिए गंभीर है। पाक मामलों के विशेष प्रो. कलीम बहादुर का कहना है कि यह दुनिया जानती है कि अमेरिका या ब्रिटेन जिस नीति से आंतकवाद या तालिबान के खिलाफ लड़ना चाहते हैं वह कभी सफल नहीं हो सकेंगे, क्योंकि लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठन और अलकायदा या तालिबान अपना गहरा गठजोड़ कर चुके हैं। उनका यह भी मानना है कि ऐसे में जब इन आतंकी संगठनों को पाक आर्मी के अफसरों और खुफिया एजेंसी आईएसआई का भरपूर सहयोग मिलने का खुलासा दिन-प्रतिदिन होता जा रहा हो तो अमेरिका और ब्रिटेन को पाकिस्तान पर हवाई दबाव बनाने के बजाए ठोस कार्ययोजना और नीति के साथ आगे आने की जरूरत है।

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर फिर उठे सवाल!

ओ.पी. पाल
राष्ट्रमंडल खेल आरंभ होने में केवल 66 दिन ही बाकी रह गये हैं, लेकिन केंद्र व दिल्ली सरकार पर उनकी तैयारियों के दावों के बावजूद उंगलियां उठने का सिलसिला रूकने का नाम नहीं ले रहा है, खासकर भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी को निशाना बनाते हुए केंद्र सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस के ही लोग राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों पर सवालिया निशान उठा रहे हैं तो ऐसे में विपक्षी दलों के नेता भला पीछे कैसे रह सकते हैं। दरअसल राष्ट्रमंडल खेलो के विरोध मोर्चा खोलने वाले मणिशंकर अय्यर ने ही स्वयं खेल मंत्री होते हुए तैयारियों को शुरू करने में अहम भूमिका निभाई थी।
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में तीन से 14 अक्टूबर तक होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों पर भारत की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है, जिसकी तैयारियों में लगातार हो रही देरी को लेकर पहले से ही उंगली उठती रही है, लेकिन केंद्र और दिल्ली सरकार का नेतृत्व कर रही कांग्रेस में ही खेलों को लेकर मतभेद नजर आने लगे हैं। इन खेलों के आयोजन के विरोध में अब वही मणिशंकर अय्यर टिप्पणियों की बौछार करने में सबसे आगे हैं, जिन्होंने इन राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों को केंद्रीय खेल मंत्री होते हुए शुरू कराया था और तैयारियों के लिए केंद्रीय बजट तथा आयोजन समिति से लेकर तमाम कमेटियों के गठन में अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन यूपीए के दूसरे कार्यकाल में उन्हें मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी गई, शायद इसी बात का मलाल उन्हें ऐसी टिप्पणी करने के लिए मजबूर कर रहा है? हालांकि इन टिप्पणियों को लेकर कांग्रेस पार्टी मणिशंकर अय्यर पर शिकंजा कसने की भी तैयारी कर रही है, लेकिन उन्होंने भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों को लेकर एक बार फिर से केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार की किरकिरी करते हुए यहां तक कह दिया है कि इन खेलों का संरक्षण भगवान नहीं बल्कि शैतान ही कर सकता है। वहीं उन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों पर अपनी भड़ास निकालते हुए यह भी कहा कि बारिश से इन खेलों का बेड़ा गर्क हो जाएगा। मणिशंकर अय्यर ने इससे पहले भी राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को जनता के धन की बर्बादी करार देकर सरकार के खिलाफ मोर्चाबंदी की थी। उनका मानना है कि खेलों पर 35 हजार करोड़ रुपये की भारी भरकम राशि खर्च करने की बजाय उस धन को उन बच्चों पर खर्च किया जाना चाहिए था, जिन्हें खेल की सुविधाएं नसीब नहीं हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह के सकर्सों पर इतनी बड़ी रकम खर्च की जा रही है, जबकि आज बच्चों को खेलने के साधन तक नहीं उपलब्ध हैं। उन्होंने कहा कि सरकार को भविष्य में एशियाई खेलों या ऐसे ही अन्य अंतरराष्ट्रीय खेलों के आयोजन की बोली लगाने से पहले दो बार सोच लेना चाहिए। अय्यर की यह टिप्पणी इस बात को जाहिर करती है कि राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर कांग्रेस पार्टी में बड़े पैमाने पर मतभेद हैं। हालांकि अय्यर की इस ताजा टिप्पणी को एक सिरे से खारिज करते हुए दिल्ली सरकार की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित के सुपुत्र और कांग्रेस सांसद संदीप दीक्षित का कहना है कि वह ऐसी टिप्पणियों को गंभीरता से नहीं लेते। कांग्रेस के ही लोकसभा सदस्य जगदम्बिका पाल का कहना है कि कि यदि खेलों को लेकर कोई मतभेद हैं तो उन्हें सार्वजनिक करने के बजाए पार्टी फोरम में उठाना चाहिए। कांग्रेस प्रवक्ता ने इस बयान को मणिशंकर अय्यर की अपनी निजी राय कहते हुए कहा कि राष्ट्रमंडल खेल हमारे देश का गौरव बढ़ाएगा। दूसरी ओर भाजपा प्रवक्ता रवि शंकर प्रसाद ने खेलों की तैयारियों में देरी पर सवालिया निशान लगाते हुए कहा कि केंद्र और दिल्ली सरकार को समझना चाहिए कि राष्ट्रमंडल खेलों से देश का गौरव जुड़ा है, लेकिन साथ ही मणिशंकर अय्यर की टिप्पणी को गैर जिम्मेदाराना बयान भी करार दिया है। समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता मोहन सिंह ने भी अय्यर की टिप्पणी को गैर जिम्मेदार बताते हुए कहा कि जो खेलों का विरोध कर रहे हैं उन्हें ऐसी भाषा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, हालांकि ऐसे लोग अपना सुख पाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। दरअसल राष्ट्रमंडल की खेलों की तैयारियों में हो रही देरी से पहले भी आयोजकों और केंद्र व दिल्ली सरकार पर उंगलियां उठाई गई हैँ, जिसमें भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष एवं सांसद सुरेश कलमाड़ी के खिलाफ खेलों को लेकर मोर्चा खोलने में पूर्व खिलाड़ी भी पीछे नहीं है। भारतीय हॉकी के पूर्व कप्तान परगट सिंह ने तो कलमाड़ी पर खुलकर हमले करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और यहां तक कह डाला कि भारतीय खेल जगत में कलमाड़ी एक ऐसा चेहरा है जिसके कारण हाल ही में सामने आए यौन उत्पीड़न के मामले सामने आने लगे हैं। ऐसे ही लोगों द्वारा भारतीय खेल पर कुंडली मारने का नतीजा है कि भारतीय खेलों से जुड़े खिलाड़ियों को केंद्र सरकार के दिशा निर्देशों और भारीभरकम धनराशि मुहैया कराने के बावजूद प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है।

लव गुरु बने मंदिरा और कौशल

ओ.पी. पाल
दिल्ली वालों को अब तनाव से दूर करने का प्रयास करने के लिए मंदिरा बेदी और उनके पति राज कौशल ने जिंदगी को मुस्कराते हुए जीने की राह दिखाने का फैसला किया है यानि अब अपनी 11 साल की खुशहाल शादीशुदा जिंदगी के बाद मशहूर जोड़ी मंदिरा बेदी और राज कौशल दिल्लीवासियों को दिल के राज और परफेक्ट संबंधों के गुर सिखाएंगे।
जल्द ही मंदिरा और राज दिल्ली वालों को दिल के बारे में ज्ञान बांटेंगे। ये राज वे बिग एफएम रेडियो के थोड़ा पर्सनल कार्यक्रम में देंगे। निर्माता निर्देशक राज कौशल का मानना है कि वैवाहिक जीवन में रोमांस के अलावा भी बहुत कुछ होता है। राज कहते हैं कि संवेदना और साथी के लिए आदर अगर हो, तो इससे जीवन में जादू पैदा हो जाता है। आज के जीवन में इतना तनाव है, जितना समय नौकरी को देना पड़ता है, उतना ही संबंधों को भी इसलिए ऐसे लोगों का होना जरूरी है जो ये कहें कि हम इन हालात से गुजर चुके हैं, हम आपको बता सकते हैं. इसीलिए हम सीन में आए हैं। राज कहते हैँ कि सबसे बढ़िया फार्मूला है मुस्कुराओ और सुनो, अपने साथी को दिन भर मुस्कान दो और उसे सुनो। अगर आपका दिन मुश्किल था और आप तेवर के साथ घर में घुसते हैं तो आप अपने साथी को एक तरह से परेशान कर रहे हैं क्योंकि उसने दिन भर आपका इंतजार किया है। इसलिए मुस्कान के साथ घर में आइए और शायद ऐसा कुछ कहिए कि मेरा दिन आज बहुत बुरा सा था लेकिन अब तुम्हें देख कर इतना अच्छा लग रहा है। वहीं मंदिरा बेदी मानती हैं कि वह बहुत अधीर हो जाती हैं। उनके साथ रहने में उनके पति के संयम का बहुत बड़ा रोल है। वह शांति से सुनते हैं और इसलिए हमारी शादी भी इतनी अच्छे से चल रही है। मुझे ऐसा लगता है कि एक शादी में दोनों एक जैसे नहीं हो सकते, क्योंकि यह फिर काम ही नहीं करेगी। दोनों को एक दूसरे को बैलेंस करना होता है। शायद इसलिए ही हम इतने साल से एक साथ हैं, क्योंकि उनके पास बहुत संयम है और मेरे पास बिलकुल नहीं। मंदिरा ने का कहना है कि वह लड़ते हैं, कई बार आपा खो देते हैं या किसी बात से उन्हें परेशानी होती है लेकिन वैसे उनका स्वभाव शांत है। आखिर मंदिरा को राज में क्या सबसे अच्छा लगता है पर वह कहती हैं कि मुझे अच्छा लगता है कि वह दूसरों की मदद करते हैं, चाहे जो भी मामला हो। उनका दिल बहुत अच्छा है और वह अच्छे कर्मों में विश्वास रखते हैं। ऐसे लोग आज की दुनिया में कहां मिलते हैं। इसलिए मैं अपने आप को बहुत किस्मत वाली मानती हूं।

सोमवार, 26 जुलाई 2010

राज्यसभा बनी भाषाओं के रंगों की गवाह!

ओ.पी. पाल
राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव में निर्वाचित होकर आए 54 में से 52 सदस्यों ने अपने पद और गोपनीयता की शपथ ली, उच्च सदन में इस दौरान नविनिर्वाचित राज्यसभा के सदस्यों ने हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी, तमिल, तेलगू, संस्कृत, कन्नड, मराठी, उडिया जैसी क्षेत्रीय भाषाओं में शपथ ग्रहण की, जिसमें राष्ट्र भाषा हिंदी का बोलबाला रहा। हालांकि राजस्थान के कुछ सदस्यों ने राजस्थानी भाषा में शपथ लेनी चाही लेकिन उन्हें अनुमति नहीं मिली। इसके बावजूद सदन में देश की विभिन्न भाषाओं की गूंज से ऐसे समय में अनेकता में एकता का माहौल नजर आया, जब देश के विभिन्न राज्यों में भाषा की जंग चल रही हो।
संसद के उच्च सदन में मानसून सत्र शुरू होते ही द्विवार्षिक चुनाव के दौरान देश के विभिन्न राज्यों से निर्वाचित होकर आए सदस्यों को उनके पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई गई। इस दौरान नवनिर्वाचित 54 में से 52 ही सदस्य सदन में उपस्थित हुए, जिनमें केन्द्रीय मंत्री अंबिका सोनी और आनंद शर्मा के अलावा भाजपा के वरिष्ठ नेता एम. वेंकैया नायडू, राजीव प्रताप रूडी व तरुण विजय, लोजपा प्रमुख रामविलास पासवान, बसपा नेता सतीश चंद्र मिश्रा तथा राकांपा नेता तारिक अनवर, कांग्रेस की मोहसिना किदवई प्रमुख थे। राज्यसभा की कार्यवाही शुरू होते ही नए सदस्यों ने बारी-बारी से उच्च सदन की सदस्यता की शपथ ली। राज्यसभा के सभापति के रूप में उप राष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने सभी सदस्यों को शपथ दिलाई। सबसे पहले शपथ लेने वालों में आंध्र प्रदेश से वाईएस चौधरी थे, जिन्होंने तेलगू में शपथ ग्रहण की। ज्यादातर सदस्यों ने क्षेत्रीय भाषा में शपथ ली है। यदि भाषाओं की नजर से देखा जाए तो 52 में से 23 सदस्यों ने शपथ लेने के लिए हिंदी का प्रयोग किया। इसके अलावा अंग्रेजी में शपथ लेने वाले सदस्यों की संख्या छह थी, जिनमें बसपा के आठ सदस्यों में दो सदस्य भी अंग्रेजी में शपथ लेने वालों में शामिल रहे। इनके अलावा तेलगू भाषा में चार, उर्दू में चार कन्नड में दो, संस्कृत में तीन, मराठी में एक, उडिया में तीन, पंजाबी में दो तथा तमिल भाषा में चार सदस्यों ने शपथ ग्रहण की। इससे कुछ यूं भी कहा जा सकता है कि शपथ ग्रहण के दौरान उच्च सदन देश की विभिन्न भाषाओं का भी गवाह बना। द्विवार्षिक चुनाव में निर्वाचित होकर आने वाले सदस्यों में सर्वाधिक 12 सदस्य उत्तर प्रदेश से निर्वाचित होकर आए हैं, जिनमें बसपा के आठ, सपा के दो, कांग्रेस व भाजपा का एक-एक सदस्य शामिल है। जबकि आंध्र प्रदेश, बिहार और राजस्थान से पांच-पांच, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड से एक-एक, झारखंड और पंजाब से दो-दो, तमिलनाड़ु से चार, उड़ीसा, कर्नाटक और मध्य प्रदेश से तीन-तीन, महाराष्ट्र से छह सदस्य निर्वाचित होकर सदन में आए हैं। कांग्रेस से शपथ लेने वाले प्रमुख सदस्यों में केंद्रीय मंत्री अंबिका सोनी और आनंद शर्मा के अलावा वी. हनुमंत राव, मोहसिना किदवई तथा कैप्टन सतीश शर्मा शामिल हैं। भाजपा की ओर से शपथ लेने वालों में वरिष्ठ नेता एम. वेंकैया नायडू, राम जेठमलानी, मुख्तार अब्बास नकवी, राजीव प्रताप रूड़ी, वरिष्ठ पत्रकार चंदन मित्रा और तरुण विजय शामिल हैं। राज्यसभा में यह पहला मौका है जब बसपा तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी है, जिसके सतीश चन्द्र मिश्रा, अंबेथ राजन, प्रो. एसपी सिंह बघेल, राजपाल सैनी, प्रमोद कुरील, जुगल किशोर, नरेन्द्र कश्यप व सलीम अंसारी ने शपथ ली है। सपा से पार्टी प्रवक्ता मोहन सिंह और राशिद मसूद ने भी उच्च सदन की सदस्यता की शपथ ली। जनता दल यूनाइटेड के रामचंद्र प्रसाद सिंह और उपेंद्र कुशवाहा, राजद के रामकृपाल यादव और लोजपा के रामविलास पासवान ने भी शपथ ली। महाराष्ट्र से शिवसेना के संजय राउत और राकांपा के तारिक अनवर ने शपथ ली, जबकि कर्नाटक से प्रमुख उद्योगपति विजय मल्लया ने निर्दलीय सदस्य के रूप में शपथ ली। वहीं उद्योगपति कंवरदीप सिंह ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के सदस्य के रूप में शपथ ली। आंध्र प्रदेश से चुने गए पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश और छत्तीसगढ़ से चुने गए भाजपा नेता नंद कुमार साय शपथ ग्रहण के मौके पर उच्च सदन में उपस्थित नहीं थे, जिन्हें बाद में शपथ दिलाई जाएगी. भारत की विभिन्न भाषाओँ में शपथ लेने वाले सदस्यों के गवाह सदन के साथ मानसून सत्र की कार्यवाही देखने आये सैकड़ों दर्शक भी है. जिनमें कुछ नामचीन हस्तियाँ भी वीपीआई दीर्घा में बैठी नज़र आ रही थी.

रविवार, 25 जुलाई 2010

विधेयकों में दांव पर सरकार की प्रतिष्ठा!

ओ.पी. पाल
संसद के सोमवार से आरंभ हो रहे मानसून सत्र में सरकार के भारी भरकम एजेंडे में 59 विधेयकों को शामिल किया गया है, जिसमें बहुचर्चित खाद्य सुरक्षा विधेयक व बहुविवादित भूमि अधिग्रहण के साथ सांप्रदायिक हिंसा निवारण जैसे विधेयक एक बार फिर से सरकार ने मानसून सत्र के एजेंडे में शामिल नहीं किया है। यह भी तय माना जा रहा है कि सरकार के एजेंडे में शामिल महिला आरक्षण बिल और नागरिक परमाणु दायित्व जैसे कुछ विवादस्पद विधेयकों को विपक्षी दलों के विरोध के सामने संसद में पारित कराना सरकार के लिए आसान नहीं है। हालांकि मानसून सत्र के दौरान विपक्ष के पास केंद्र सरकार को चौतरफा घेरने के लिए मुद्दों की कमी नहीं है।संसद के मानसून सत्र में सरकार द्वारा एजेंडे में शामिल किये गये विधेयकों में महिला आरक्षण बिल और नागरिक परमाणु दायित्व ऐसे विवादस्पद विधेयकों में शामिल है जिसका लोकसभा में विपक्षी दल लगातार विरोध करते आ रहे हैं। ऐसे में सरकार के लिए इन बिलों को पारित करना एक टेढ़ी खीर से कम नहीं है। इनमें से महिलाओं को लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान करने वाला विधेयक को गत नौ मार्च को राज्यसभा में किन हालातों में पारित किया गया था, यह पूरा देश जानता है। जिसका खासकर समाजवादी पार्टी (सपा) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने कड़ा विरोध किया था। उसी तरह अब सपा और राजद लोकसभा में भी महिला आरक्षण विधेयक का विरोध करने के लिए पूरी तैयारी में हैं। यही नहीं यूपीए की घटक दल तृणमूल कांग्रेस भी महिला आरक्षण विधेयक के मौजूदा स्वरूप के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद किये हुए है, जबकि भाजपा महिला आरक्षण बिल के पक्ष में वोट करेगी, लेकिन नागरिक परमाणु दायित्व विधेयक का विरोध करने में पहले से ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का वाम दलों की तर्ज पर पूरी ताकत से विरोध करने का ऐलान हो चुका है। विवादास्पद परमाणु नागरिक दायित्व विधेयक, 2010 को बजट सत्र के दौरान लोकसभा में पेश किया गया था, जिसे भाजपा और वाम दलों के विरोध की आशंका के कारण संसद की स्थाई समिति ने बाद में विधेयक को वापस ले लिया। इस बिल पर विरोध करने के लिए विपक्ष का तर्क है कि भोपाल गैस त्रासदी के 25 वर्ष बाद काफी कम हर्जाने के फैसले को देखते हुए विधेयक को नहीं पेश किया जाना चाहिए। हालांकि सरकार को संसद में चौतरफा घेरने के लिए विपक्ष के पास महंगाई, आतंकवाद, नक्सलवाद, विदेश नीति, किसानों की समस्या और सरकार की नीतियों के अलावा कई ऐसे मुद्दे हैं जिनका तोड़ तलाशने के लिए यूपीए सरकार असमंजस की स्थिति में है। केंद्र सरकार ने राजनीतिक मजबूरी को देखते हुए विवादित महिला आरक्षण और सांसदों के वेतनभत्तो को बढ़ाने के लिए विधेयक को तो एजेंडे में शामिल किया है, लेकिन बहुचर्चित खाद्य सुरक्षा विधेयक, बहुविवादित भूमि अधिग्रहण और सांप्रदायिक हिंसा निवारण जैसे विधेयक को एजेंडे से बाहर ही रखा है। पिछले बजट सत्र में भी सरकारी एजेंडे में शामिल होने के बावजूद भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक और पुनर्वास विधेयक पर सरकार के अंदर ही मतभेद होने के कारण इस बार उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। इसी सत्र में झारखंड में राष्ट्रपति शासन को मंजूरी देने और वहां की अनुपूरक अनुदान मांगों को भी पारित किया जाना है। झारखंड में पंचायती राज चुनाव के बाबत हुए संशोधनों को भी मानसून सत्र में मंजूरी लेनी होगी और इसी के साथ झारखंड में राष्ट्रपति शासन है और इसकी मंजूरी संसद से ली जानी है।
एजेंडे में शामिल प्रमुख विधेयक
केंद्र सरकार के एजेंडे में मानसून सत्र में पेश किये जाने वाले अन्य महत्वपूर्ण विधेयकों में प्रतिभूति और बीमा कानून (संशोधन और मान्यता) विधेयक, 2010, भारतीय चिकित्सा परिषद (संशोधन) विधेयक, 2010, शत्रु संपत्ति (संशोधन और मान्यता) विधेयक, 2010 संसद सदस्यों के वेतन, भत्तों और पेंशन (संशोधन) विधेयक, 2010, बीज विधेयक, 2004, परमाणु नागरिक दायित्व विधेयक, 2010, भारतीय भूपत्तन प्राधिकरण विधेयक, 2010, विदेशी योगदान (विनियमन) विधेयक, 2006, दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) विधेयक, 2010, उड़ीसा (नाम परिवर्तन) विधेयक, 2010, खान और खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन विधेयक, 2008, भारतीय बॉयोटेक्नोलॉजी नियामक प्राधिकरण विधेयक, 2010, अपहरण विरोधी (संशोधन) विधेयक, 2010, उपभोक्ता संरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2010, प्रत्यक्ष कर संहिता विधेयक, 2010, शस्त्र (संशोधन) विधेयक, 2010, केंद्रीय शिक्षण संस्थान (प्रवेश में आरक्षण)(संशोधन) विधेयक, 2010, प्रसार भारती (भारतीय प्रसारण निगम) संशोधन विधेयक, 2010, न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक, 2010, संविधान (संशोधन) विधेयक, 2010-(उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु तीन वर्ष बढ़ाकर 62 से 65 वर्ष करना), विवाह अधिनियम (संशोधन) विधेयक, 2010, बांध सुरक्षा विधेयक, 2010, राष्ट्रीय विश्वविद्यालय विधेयक, 2010 आदि को लोकसभा में पेश किया जाना है, जबकि लोकसभा में पारित हो चुके प्रताड़ना निवारक विधेयक, 2010, ऊर्जा संरक्षण (संशोधन) विधेयक, 2010 तथा वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2010 को राज्यसभा में पारित कराने के लिए यूपीए सरकार को विपक्ष से सहयोग लेने की आवश्यकता पड़ेगी, क्योंकि राज्यसभा में यूपीए सरकार बहुमत के आंकड़े से कोसो दूर है।

शनिवार, 24 जुलाई 2010

नक्सलवाद का हल तलाशती केंद्र सरकार!

ओ.पी. पाल 
देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरे का नासूर बनती जा रही नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने एक बार फिर से विकास कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के मामले में राज्य सरकारों से सहयोग की अपेक्षा की है। प्रधानमंत्री के इस आग्रह का तात्पर्य सीधा है कि यदि राज्य सरकार केंद्र की योजनाओं में सहयोग करें तो नक्सलवाद की समस्या से निपटा जा सकता है। इससे पहले नक्सलवाद प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में भी केंद्र सरकार राज्यों को दलील दे चुकी है। सवाल है कि केंद्र सरकार योजनाएं तो बना रही है, लेकिन नक्सलवाद की जड़ों को खत्म करने के लिए सरकार की कोई भी योजना कारगर साबित नहीं हो पा रही है, बल्कि देखा गया है कि जब भी नक्सलवाद के खिलाफ सरकार कदम बढ़ाने का ऐलान करती है तो नक्सलवाद का फन किसी घटना के रूप में बढ़ता नजर आता है और केंद्र सरकार हमेशा योजना की विफलता का ठींकरा राज्यों पर फोड़ती नजर आई है।राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में भी हमेशा की तरह केंद्र सरकार ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सहयोग की अपेक्षा के बहाने दलील देने का प्रयास किया है कि नक्सलवाद जैसी विकट समस्या के समाधान में राज्य सरकारों का वह सहयोग नहीं मिल पा रहा है जिसकी जरूरत है। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने एनडीसी की बैठक में योजना आयोग से नक्सलवाद प्रभावित राज्यों के लिए समग्र विकास कार्यक्रम बनाने का हवाला देते हुए फिर दोहराया है कि राज्यों की सरकारों के पूर्ण सहयोग के बिना नक्सलवाद की समस्या से निपटना संभव नहीं है। प्रधानमंत्री के कहने का संकेत है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास की योजनाओं को राज्य सरकार कार्यान्वित कराने में प्राथमिकता से काम करें, तो गरीब और कमजोर तबके के लोग खासकर युवा वर्ग नक्सलवाद का रूख न करें ओर उनके इलाकों में विकास कार्य हो तथा युवाओं को रोजगार संबन्धी योजनाओं का लाभ मिले, तो नक्सलवाद की चुनौतियों से कहीं हद तक निपटने में सफलता मिल सकती है। केंद्र सरकार हमेशा यह तो दोहराती है कि वामपंथी नक्सलवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा है, जिससे निपटने में सरकार सक्षम है, लेकिन केंद्र सरकार की नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए बनाई गई अभी तक की कोई योजना सफल नहीं हो पाई, बल्कि नक्सलवादियों ने सरकार को उसका जवाब उसी दौरान हिंसक वारदात करके दिया है। दस दिन पहले ही राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में नक्सलवाद से प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में भी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद की समस्या से निपटने के लिए केंद्र सरकार की बनाई जा रही योजनाओं का खाका दिया था। इसमें केंद्र सरकार ने नक्सल रोधी एकीकृत कमान की योजना शुरू करने का आवश्वासन दिया था। हालांकि केंद्र सरकार ने खासकर नक्सलवाद से प्रभावित चार राज्यों छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल की राजधानियों में शीघ्र ही नक्सल रोधी एकीकृत कमान तैनात करने की प्रक्रिया को तेजी के साथ शुरू करने की भी बात कही है, लेकिन प्रधानमंत्री ने आज राष्ट्रिया विकास परिषद की बैठक में नक्सलवाद प्रभावित राज्यों में इस समस्या से निपटने के लिए दो मोर्चो की बात कही है, जिसमें वन अधिकार कानून का कार्यान्वयन और पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत करने के अलावा इन इलाकों में विकास कार्यक्रमों के लिए अतिरिक्त संसाधन मुहैया करवाना शामिल है। नक्सलवाद पर विशेषज्ञ पहले भी सरकार की दोहरी नीति को नक्सलवाद की समस्या से निपटने के फार्मूले को कारगर नहीं मानते। क्योंकि नक्सलवादियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई और विकास कार्यक्रमों का कार्यान्वयन पर सरकार पहले भी विफल रही है। ऐसे में सवाल यही उठता है कि केंद्र सरकार क्या इन योजनाओं के जरिए नक्सलवाद की चुनौतियों का सामना करने में सफल हो जाएगी? जहां तक नक्सलवाद के खिलाफ एकीकृत कमान की तैनाती का सवाल है उसके लिए सरकार जम्मू-कश्मीर और असम की तर्ज पर अभियान चलाने की योजना बना रही है। इस एकीकृत कमानों की कमान संबन्धित राज्यों के मुख्य सचिवों को सौँपी गई है, जिसमें राज्य के पुलिस महानिदेशक, राज्य के विकास आयुक्त, राज्य पुलिस और सीआरपीएफ के नक्सल विरोधी अभियानों के महानिरीक्षक, गुप्तचर ब्यूरो का एक अधिकारी, राज्य खुफिया विभाग का एक अधिकारी और सेना से अवकाश प्राप्त जनरल रैंक का एक अधिकारी शामिल किये जा रहे हैं। गृहमंत्री पी. चिदंबरम का तो यहां तक कहना है कि नक्सल प्रभावित राज्यों में सीआरपीएफ, बीएसएफ, पुलिस और आईटीबीपी द्वारा नक्सलवाद के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियानों की जिम्मेदारी और शक्तियां एकीकृत कमान के पास ही होंगी। केंद्र सरकार की इन योजनाओं से यही कहा जा सकता है कि नक्सलवाद के खिलाफ सुरक्षा बलों के अभियान और विकास कार्यक्रम की दोहरी नीति सरकार नक्सलवाद की समस्या का समाधान तलाश रही है।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

क्या कारगर होगा आतंकी निरोधी करार?

ओ.पी. पाल
आतंकवाद के मुद्दे पर भारत और अमेरिका के बीच हुए आतंकवाद निरोधक समझौते में जिस प्रकार से आतंकी गतिविधियों के वित्तपोषण पर अंकुश लगाने, बम विस्फोटों के मामलों की संयुक्त जांच करने के साथ साइबर एवं सीमा सुरक्षा में आपसी सहयोग करने पर सहमति बनी है। इस समझौते के आधार पर क्या अमेरिका आतंकवाद को समर्थन दे रहे पाकिस्तान पर अंकुश लगा पाएगा? इसी सवाल पर विशेषज्ञों का मानना है कि इस करार पर खरा उतरने के लिए पाकिस्तान को दी जाने वाली आर्थिक मदद की समीक्षा करने वाले अमेरिकी कानून को सख्ती के साथ लागू करना होगा, जिसका अभी तक पाकिस्तान की सेना विरोध करती आई है।
अमेरिका ने पिछले साल ही संसद और अमेरिकी सीनेट में एक बिल पारित किया था जिसमें यह प्रावधान है कि दुनिया के जिन देशों को अमेरिका आर्थिक मदद देता है उसकी यह मॉनीटरिंग की जाए कि वह धन जिस मद में जारी किया गया है वह उसी क्षेत्र में लगाया गया है या नहीं। माना जा रहा है कि इसी लिहाज से प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की पहल पर भारत और अमेरिका ने नई दिल्ली में आतंकवाद निरोधक समझौते पर हस्ताक्षर करके शायद इस प्रकार की सहमति बनाई है कि इस मुद्दे पर दोनों देश आतंकी गतिविधियों के वित्तपोषण पर अंकुश लगाने, बम विस्फोटों के मामलों की संयुक्त जांच और साइबर एवं सीमा सुरक्षा में मिल जुलकर काम करेंगे। सहयोग शामिल है। भारत में अमेरिका के राजदूत टिमोथी जे. रोमर और केंद्रीय गृह सचिव जी.के. पिल्लई ने ऐसे ही एक करार हस्ताक्षर करके आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष को एक नई दिशा देने का प्रयास किया है। जहां तक भारत-अमेरिकी करार का सवाल है उसके संबन्ध में अमेरिकी राजदूत रोमर का कहना है कि भविष्य में दोनों देश सूचनाओं की और भी निकट साझेदारी और बम विस्फोट जांच एवं प्रमुख कार्यक्रमों की सुरक्षा से ले कर मेगा सिटी पुलिसिंग, साइबर और सीमा सुरक्षा जैसे मुद्दों पर ज्यादा निकट सहयोगात्मक प्रयास करेंगे। रोमर ने कहा कि राष्ट्रपति बराक ओबामा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने साझा खतरों को महसूस किया कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद सभी लोगों के लिए खतरा है। समझौते में आतंकवाद से मुकाबला के लिए दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ाने को उनकी द्विपक्षीय भागीदारी के एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में जोर दिया गया है। इस पहल में आतंकवाद का प्रभावी तरीके से मुकाबला करने के लिए क्षमता में विस्तार, आधुनिक तकनीकों के आदान प्रदान को बढ़ावा देना, परस्पर हितों के मुद्दों को साझा करना, जांच संबंधी कुशलता का विकास तथा फारेंसिक विज्ञान प्रयोगशालाओं में सहयोग को बढ़ावा देने का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा जांच में परस्पर सहायता के लिए प्रक्रिया तय करना, आतंकवाद के वित्तपोषण, जाली नोटों और मनी लाउंड्रिंग के खिलाफ कारर्वाई के लिए क्षमता विस्तार, रेल एवं जन परिवहन की सुरक्षा, समुद्री सुरक्षा के लिए नौसेना और तटरक्षक बलों के बीच आदान प्रदान की भी इसमें की गई है। इस समझौते में सीमा और बंदरगाहों की सुरक्षा संबंधी कुशलता एवं अनुभवों के अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड सहित आतंकवाद विरोधी विशेष इकाइयों का उनके अमेरिकी समकक्षों के बीच का आदान प्रदान पर भी जोर दिया गया है। उधर केंद्रीय गृह सचिव जीके पिल्लई का कहना है कि इस करार के दस्तावेजों में उन मुद्दों को शामिल किया गया है, जिसे भारत और अमेरिका ने आतंकवाद के खतरे के लिए पहचान की है। भारत और पाकिस्तान मामलों के जानकार विशेषज्ञ प्रो. कलीम बहादुर कहते हैं कि अमेरिका ने भारत के साथ आतंकवाद निरोधक करार अमेरिकी सीनेट के सदस्यों-केरी और लूगर के नाम से जुड़े उस कानून आपरेशन एक्ट (पीस एक्ट) कि आधार पर ही किया गया है जिसमें यह बिल पाकिस्तान की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी राहत का काम करेगा, हालांकि इस बिल का पाकिस्तानी फौज ने विरोध किया है। क्योंकि ऐसी शिकायतें थी कि अमेरिकी सहायता की राशि पाकिस्तान में आतंकवाद के विकास पर खर्च की जा रही है। प्रो. कलीम बहादुर मानते हैं कि अमेरिका पाकिस्तान को मिलने वाली सहायता तो बंद नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा किया तो वहां तालिबान अपना कब्जा जमा सकते हैं इसलिए अमेरिका की मजबूरी भी है, लेकिन कानून में बांधना ही उसके सामने एक विकल्प था। इसलिए अमेरिका को पाकिस्तान में इस कानून का सख्त पालन कराने पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। इस कानून के अनुसार पाकिस्तान सरकार को भविष्य में सेना के बजट, कमांड की प्रक्रिया, जनरलों का प्रमोशन, रणनीतिक नीति निर्धारण और नागरिक प्रशासन में सेना की भूमिका पर नजर रखनी पड़ेगी और अमेरिका को इसके बारे में जानकारी देनी पड़ेगी।

आतंकवाद:अमेरिका बदले अपनी नीतियां

ओ.पी. पाल
भारत में 26/11 आतंकी हमले को लेकर भले ही अमेरिका पाकिस्तान पर दबाव बनाने की बात करता हो, लेकिन पाकिस्तान या अफगानिस्तान के मामले में जिस प्रकार की अमेरिकी नीतियां बनाई जा रही हैं, वह आतंकवाद से निपटने में नाकाफी हैं और नही मौजूदा नीतियों से अमेरिका तालिबान को समाप्त कर पाएगा? दरअसल पाकिस्तान को अपने साथ रखना इसलिए भी अमेरिका की मजबूरी है कि उसे इस बात का डर है कि कहीं पाकिस्तान पूरी तरह चीन की गोद में न चला जाए। यही कारण है कि अमेरिका यह सब जानते हुए भी कि पाकिस्तान आतंकवाद और तालिबानी संगठन अलकायदा जैसे कट्टरपंथी संगठनों का समर्थन और उनके लिए मददगार है, फिर भी अफगान में जारी अपने संघर्ष को दृष्टिगत रखते हुए पाकिस्तान को आर्थिक और हथियारों जैसी सहायता को लगातार बढ़ा रहा है।
भारत-पाक मामलों के विशेषज्ञ कमर आगा का कहना है कि अमेरिका की नीति रही है कि भारत और पाकिस्तान को चीन से दूर रखने के लिए वह दोनों पडोसी दशों से संबन्ध बनाए हुए है। भारत से ज्यादा अमेरिका पाकिस्तान पर निर्भर है, क्योंकि अफगानिस्तान जहां वह तालिबान के खिलाफ संघर्ष कर रहा है उसके अन्य पडोसी देशों इरान, इराक ताकिस्तान जैसे मुल्कों से संबन्ध नहीं है। अमेरिका समय-समय पर यह भी आरोप लगाता रहा है कि ओसामा बिन लादेन और अफगानी तालिबान के नेता मुल्ला उमर पाकिस्तान में ही शरण लिए हुए है। यहां तक अमेरिका यह भी कह चुका है कि पाकिस्तान ही आतंकवादी बाजार का केंद्र है। यह सब कुछ जानते हुए भी अमेरिका की पाक नीति लगतार सुदृढ़ हो रही है और पाकिस्तान पर इस दबाव का कोई प्रभाव होने वाला नहीं है। जहां तक मुंबई आतंकी हमले के आतंकवादियों का सवाल है उसके लिए भारत के कहने पर ही अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए पाकिस्तान पर दबाव बनाता है, लेकिन अमेरिका के पाक पर इस दबाव में दम नजर नहीं आता। हाल ही में जैसा कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता पीजे क्राउली ने मुंबई हमले के आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई करना समूचे क्षेत्र और खुद पाकिस्तान की सुरक्षा के लिए यह बेहद जरूरी बताया है, लेकिन आतंकवाद के मुद्दे खासकर मुंबई आतंकवादी हमले की जांच और दोषियों को कठघरे में खड़ा करने में पाकिस्तान कोई ठोस कार्रवाई करेगा ऐसा इसलिए भी नहीं लगता क्योकि भारत इस आतंकी हमले से जुड़े तमाम सबूत पाक को सौँप चुका है, लेकिन अभी तक पाकिस्तान की ओर से ऐसा कोई संकेत नहीं आया कि वह आतंकवाद के मामले में गंभीर है। यह पहला मौका नहीं है कि अमेरिका ने पाकिस्तान पर मुंबई हमले को लेकर दबाव बनाया हो, इससे पहले भी अमेरिका पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कह चुका है। आगा मानते हैं कि भारत और पाकिस्तान के संबन्ध पहले से ही कडवाहट से भरे हैं और लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी हेडली ने मुंबई आतंकी हमले पर जिस प्रकार आतंकी संगठनों और पाकिस्तान प्रशासन के गठजोड़ का खुलासा किया है उससे भी पाकिस्तान आतंकवाद पर चौतरफा घिरा है। यदि पाकिस्तान आतंकवाद के प्रति गंभीर होता तो वह मुंबई हमलों की साजिश में शामिल रहे हाफिज सईद और जकीउर्रहमान व अबू हमजा जैसे आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई करने के बजाए उन्हें बचाने का प्रयास न करता। यदि अफगानिस्तान मे तालिबान या आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका बेहद गंभीर है तो उसे अपनी नीतियों खासकर पाकिस्तान के लिए अपनाई जा रही नीतियों में परिवर्तन करना होगा। अमेरिका को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करके अफगानिस्तान से लगे ईरान व इराक जैसे मुल्कों से भी सम्बन्ध बनाने की जरूरत है। बिना पडोसियों को विश्वास में लिए अमेरिका न तो अफगानिस्तान और नहीं पाकिस्तान में छिपे तालिबानियों के खिलाफ जारी संघर्ष को सफल बना पाएगा? अमेरिका की एक खास नीति यह भी रही है जब वह भारत के साथ बात करता है तो पाकिस्तान के खिलाफ बोलता है और फिर पाकिस्तान जाकर अमेरिका पाकिस्तान के ही गुण गाता नजर आता है। शायद यही कारण है कि पाकिस्तान एक तो भारत के प्रति हमेशा आक्रमक नजर आता है और फिर वह जो भी करता है उसमें अमेरिका का दबाव का असर कहीं दूर तक भी नजर नहीं आता। कमर आगा का कहना है कि अमेरिका यह कहने में भी कभी पीछे नहीं रहा कि आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में पाकिस्तान की मदद करना अमेरिका की नीति का अंग है। इसी बहाने अमेरिका, पाकिस्तान को हर तरह की मदद देकर उसे चीन से दूर रखने का प्रयास कर रहा है, लेकिन इसके विपरीत जिस प्रकार से पाकिस्तान की चीन से नजदीकी बढ़ती जा रही है वह जगजाहिर है। मसलन कि अमेरिका भी जानता है कि आतंकवाद से लड़ना आसान नहीं है और अमेरिका ने यदि अफगानिस्तान में तालिबान के संघर्ष की बागडौर पाकिस्तान को सौंपने का प्रयास किया तो वह अमेरिका के लिए ही नहीं बल्कि दुनियाभर के लिए एक बड़ी गलती होगी। यह इसलिए कहना पड़ रहा है कि अमेरिका इस प्रकार की नीति बना रहा है। इसलिए जरूरी है कि अमेरिका अपने निजी स्वार्थ को त्यागकर नीतियों को संजीदा तरीके से बदलने पर विचार करे और आतंकवाद के मुद्दे पर गंभीर होते हुए पाकिस्तान पर शिकंजा कसे तो इस समस्या का समाधान विश्व समुदाय के सहयोग से निकला जा सकता है।

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

सुरक्षा और तालिबान पर नियंत्रण की कवायद!


ओ.पी. पाल अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर काबुल में शुरू हुए अंतर्राष्ट्रिय दाता सम्मेलन की धूरी अमेरिका की अफगान नीतियों पर आधारित मानी जा रही है, जिसमें अफगानिस्तान के विकास में सहयोग दे रहे देशों का करजई सरकार पर इस बात का दबाव बढ़ रहा है कि वह राष्ट्र की सुरक्षा और तालिबान पर नियंत्रण के मामले में आत्मनिर्भर बने। इसी मकसद से इस सम्मेलन को सार्थक बनाने का प्रयास है। हालांकि अफगान में भ्रष्टाचार, विकास, नागरिक प्रशासन और बुनियादी ढांचे जैसे मुद्दों पर भी यह सम्मेलन किसी ठोस नतीजे पर पहुंचने का प्रयास करेगा। लेकिन सवाल है कि क्या अमेरिकी सेना वापसी के बाद अफगान सरकार तालिबान का मुकाबला कर पाएगी? विशेषज्ञ तो मानते हैं कि शांति बहाली के लिए अमेरिका की यह नीति तालिबान की ताकत बढ़ने का संकेत है जिसके विकल्प में किसी ठोस सुरक्षा नीति बनाने की भी जरूरत है।
विदेश मामलों के विशेषज्ञ प्रशान्त दीक्षित मानते हैं कि अमेरिका जिस मकसद से अफगानिस्तान में आया था, वह उसमें शायद इसलिए सफल नहीं पा रहा है कि अभी तक अमेरिका के हाथ में अफगानिस्तान की नब्ज हाथ में नहीं आई और नही वह अफगानिस्तान की भोगोलिक परिस्थितियों को समझ पाया है। हां अमेरिका ने अन्य देशों को साथ लेकर अफगानिस्तान को विकसित करने की जो पहल की है वह अफगानिस्तान के हित में है, लेकिन अमेरिका, ब्रिटेन और नाटो सेना तालिबान की ताकत को कमजोर नहीं कर सकी। पिछले दिनों पुन: सत्ता संभालने के बाद राष्ट्रपति हामिद करजई ने तालिबानियों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का प्रस्ताव रखा था, जिसे लंदन में हुए एक अंतर्राष्ट्रिय सम्मेलन ने स्वीकार भी कर लिया गया था, लेकिन तालिबानी नेताओं द्वारा इस प्रस्ताव को एक सिरे से ठुकरा दिये जाने से समस्या ज्यों की त्यों खड़ी हो गई। अब अफगानिस्तान के भविष्य को कैसे सुधारा जाए उसके लिए काबुल में दाता देशों का एक अंतरार्ष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया गया। प्रशान्त दीक्षित का कहना है कि इस सम्मेलन में अमेरिका अपने दृष्टिकोण के साथ शामिल हुआ है, जो अपनी अफगान नीतियों को अन्य सहयोगी देशों के समक्ष रखने वाला है। अमेरिका यह भी चाहता है कि अफगानिस्तान राष्ट्र की सुरक्षा और तालिबान पर नियंत्रण को अपने हाथों में लेने के लिए आत्मनिर्भर बने। इसी उद्देश्य से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 28 मार्च को अचानक अफगानिस्तान की यात्रा करके अफगान में तालिबान को खत्म कराने के नाम पर तैनात अपने सैनिकों से मुलाकात ही नहीं की थी, बल्कि अफगान की स्थिति का जायजा भी लिया था। जहां तक अफगानिस्तान को पडोसी देशों के हस्तक्षेप से मुक्त राष्ट्र बनाने की के मुद्दे को भी इस सम्मेलन में विचारार्थ रखने की बात कही जा रही है। जैसा कि यह कहा जाता रहा है कि अमेरिका को अफगानिस्तान से निकलने की जल्दी है, लेकिन अमेरिका यह भी नहीं चाहता कि वह बिना तालिबान को कमजोर या उसे नेस्तनाबूद किये बिना अफगान से जाए। इसलिए अमेरिका ही नहीं सभी सहयोगी देश अमेरिका के उस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए चाहते हैं कि 2014 तक अफगानिस्तान की सुरक्षा और तालिबान पर नियंत्रण उसी (अफगान सरकार) का हो। अमेरिका ने अफगानिस्तान की सेना को भी प्रशिक्षित करके वापस भेजा है, जिससे यह तो तय है कि अमेरिका की सेनाएं अगले साल से वापसी शुरू कर देगी। अफगान की शांति के जारी प्रयासों में अन्य मानवीय पहलुओं पर भी गौर करने की जरूरत है, जिसमें सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार और नागरिक प्रशासन मुहैया कराना एक बड़ी चुनौती है, हालंकि सभी मुद्दों पर अंतरार्ष्ट्रीय मंच पर चर्चा होनी है।
विदेश मामलों के जानकार एवं विश्लेषक कुलदीप नैयर तो मानते हैं कि तालिबान वाशिंगटन द्वारा ही एक कट्टरपंथियों का गठित किया हुआ बल है, जो आज उसी के लिए खतरा बना हुआ है। चिंता इस बात की है कि यदि अमेरिका उसी तरह की गलती अफगानिस्तान में दोहरा देता है उसने तालिबान के साथ मिलकर सोवियत संघ के खिलाफ दोहराई थी, तो अफगानिस्तान को विकसित करने की अब तक की जा रही कवायद पर पानी फिर जाएगा। नैयर मानते हैं कि यदि सोवियत संघ को परास्त करने के बाद अफगानिस्तान में तालिबान छोड़कर न जाता तो तालिबान का इतना बड़ा दायरा शायद ही कभी बढ़ता और न ही अमेरिका को अफगानिस्तान को मुक्त कराने के लिए तालिबान से युद्ध करने की नौबत आती। उसी समय की गलती का खामियाजा अभी तक भोग रहा है। कुलदीप नैयर मानते हैं कि यदि न्यूयार्क में 9/11 के हमले की घटना न होती तो अमेरिका तालिबान के खिलाफ अफगानिस्तान में यह अभियान भी न छेड़ता। फिर भी अमेरिका अफगानिस्तान के लिए निर्णायक स्थिति में है। लेकिन जिस प्रकार से अमेरिका अपनी सेनाओं को हटाने की बात कर रहा है तो उससे तालिबान के मनोबल बढ़ने का संकेत है। भले ही अफगानी राष्ट्रपति हामिद करजई भी दबाव में देश की सुरक्षा और तालिबान पर निंयत्रण करने का वादा कर रहे हों, लेकिन यह तय माना रहा है कि फिलहाल तालिबानी कुछ ढीले पड़े हैं और अमेरिकी सेनाओं की वापसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अफगानिस्तान सरकार तालिबान के सफाए में सक्षम नहीं लगती। आवश्यकता मात्र कमान में बदलाव की ही नहीं बल्कि सेनाओं की वापसी संबंधी अमेरिकी नीति में परिवर्तन की भी है। अब सवाल है कि अफगानिस्तान से तालिबान का सफाया कैसे हो? अफगान की शांति के लिए तालिबान के सफाए के अलावा और कोई चारा नहीं है। इस स्थिति में भारत सहायक की भूमिका निभा सकता है। दोनों देशों को तालिबान से लड़ने के लिए संयुक्त रणनीति बनानी होगी। अधिक नहीं, तो भी दोनों देशों को उस शून्य को भरने के उपायों के बारे में सोचना ही चाहिए जो अमेरिकी सेनाओं की वापसी से बनेगा।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

रेलवे सुरक्षा पर खड़े सवाल!

ओ.पी. पाल
भले ही केंद्र सरकार रेल सुरक्षा और संरक्षा के लिए ठोस एवं अत्याधुनिक तकनीक के इस्तेमाल करने का दावा करती रहे, लेकिन जिस प्रकार देश में लगातार रेल हादसे बढ़ते जा रहे हैं उससे नहीं कहा जा सकता कि रेलवे देश में विश्वस्तरीय रेल संचालन के संकल्प में कामयाब हो जाएगा? इन रेल हादसों को देखते हुए यदि यह कहा जाए कि भारत एक रेल हादसों का देश है तो कोई अतिश्योक्ति भी नहीं होगी। वहीं लाख प्रयासों के बावजूद इन भयंकर रेल हाससों से तो उलट रेलवे प्रचालन की सभी आधुनिक प्रणालियों और दुर्घटनाओं को रोकने के लिए रेलवे के सभी इंतजामों पर सवालिया निशान लग जाता है?
यूपीए सरकार में तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी के रेल मंत्री बनने के बाद एक दर्जन से ज्यादा बड़े रेल हादसे हो चुके हैं, जिसके कारण विपक्ष और उनके विरोधियों को उनके कामकाज पर भी उंगली उठाने का मौका मिल रहा है, लेकिन सवाल है कि जिस प्रकार से रेल मंत्री बनने के बाद रेल बजट में भी कुमारी ममता बनर्जी ने रेलवे सुरक्षा और संरक्षा को अपनी पहली प्राथमिकता होने की घोषणा करते हुए रेलपथ नवीकरण, सिग्नलों का आधुनिकीकरण के साथ डिजिटल अल्ट्रासोनिक फ्लो डिटेक्टिंग मशीनो तथा व्हील इम्पैक्ट लोड डिटेक्टर जैसे विभिन्न सरंक्षा उपकरण के प्रयोग करने करने पर जोर दिया था। यही नहीं रेलवे विभाग द्वारा निरंतर टक्कररोधी उपकरण को विकसित करके उसके प्रयोग करने का भी दावा किया जाता रहा है। रेलवे संरक्षा से जुड़े एक अधिकारी का कहना है कि रेलवे ने टक्कररोधी उपकरण का चीन, रूस, दक्षिण अफ्रीका और सिंगापुर से पेटेंट भी करा लिया है, जिसे देशभर के रेलमार्ग पर प्रयोग करने का काम शुरू हो गया है। लेकिन सवाल उठता है कि रेलवे के इतने इंतजामों के बावजूद भारत में रेल दुर्घटनाओं में कमी आने के बजाए बढ़ोती जा रही हैँ। इन हादसों को रेल मंत्री ममता बनर्जी के कार्यकाल का दुर्भाग्य कहें या रेलवे प्रचालन की खामियां, इसका जवाब स्वयं ममता बनर्जी के पास भी नहीं है। हां इतना जरूर होता है कि रेल दुर्घटना होने पर हादसे के शिकार लोगों को मुआवजा देने की घोषणा और दुर्घटना की जांच के आदेश जारी करने में सरकार तनिक भी देर नहीं लगाती। जहां तक जांच का सवाल है उसमें भी शायद ही आज तक कोई नतीजा निकलकर सामने आया हो? रेल सरंक्षा और सुरक्षा तथा रेल हादसों की जांच के नतीजों पर कैग भी रेलवे पर उंगलियां उठा चुका है। इसके बावजूद रेलवे ने संरक्षा और सुरक्षा के मामले में अपनी नीतियों में सुधार करने का प्रयास नहीं किया जिसकी कैग भी सिफारिश कर चुका है। रेलवे बोर्ड के एक पूर्व चेयरमैन का कहना है कि यदि सरकार को दुनिया क सबसे बड़े रेल नेटवर्क को विश्वस्तरीय बनाना है तो इसके लिए रेलवे की हर योजना को उसी मानक पर लागू करने की जरूरत है जिसकी अभी तकनीक रूप से कमी महसूस की जा रही है। यदि वीरभूमि जिले में सेंथिया रेलवे स्टेशन पर हुए ताजा रेल हादसे की बात करें तो उसमें साफतौर से प्रथम दृष्टया देखा जा सकता है कि या तो सिग्नल प्रणाली दोषपूर्ण थी या उत्तरबंगा एक्सप्रेस के चालक ने सिग्नल पर ध्यान नहीं दिया। क्योंकि स्वयं रेलमंत्री ममता बनर्जी भी इस रेल हादसे में किसी तोड़फोड़ या नक्सली साजिश से इंकार कर यह कह रही हैं कि घटना की जांच की जाएगी और दोषियों को दंडित किया जाएगा। इससे कहा जा सकता है कि मानवीय गलतियों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। जब हम रेलवे को विश्वस्तरीय बनाने की कवायद में लगे हों तो रेल हादसों को रोकने के लिए ठोस एवं अत्याधुनिक उपायों को तकनीकी रूप से मजबूत करना होगा। अन्यथा भारतीय रेल नेटवर्क की विश्व में तो छवि खराब होगी ही, वहीं रेल यात्रियों काभी रेलवे की योजनाओं से विश्वास उठने लगेगा। इन रेल हादसों को रोकने के लिए सरकार क्या ठोस कदम उठा रही है यह सवाल आम आदमी के मन में कौंधना स्वाभाविक है। रेलवे का यह भी मानना है कि रेल हादसे के कारण के लिए जांच की जा रही है, लेकिन हादसों पर राजनीति करना उचित नहीं है।

रविवार, 18 जुलाई 2010

नहीं चाहते संसद के चाक चौबंद सुरक्षा!

बॉडी स्कैनर परियोजना लगाने की परियोजना लटकी
ओ.पी. पाल
संसद की सुरक्षा को चाक चौबंद करने के लिए बॉडी स्कैनर स्थापित करने वाली उस महत्वाकांक्षी परियोजना को स्वयं सांसदों के विरोध के सामने फिलहाल रोकना पड़ रहा है, जिसके लिए केंद्र सरकार ने देश की आंतरिक सुरक्षा की व्यापक कार्ययोजना में देश की सर्वोच्च पंचायत संसद की सुरक्षा के मुददेनजर हर प्रवेश करने वाले व्यक्ति के पूरे शरीर की जांच के लिए बॉडी स्कैनर और वाहन स्कैनर लगाने की कवायद तेजी के साथ की थी। ऐसे में संसद ही इस सुरक्षा प्रणाली को पलीता लगाने का काम कर रहे हैं!
संसद में 2001 के आतंकी हमले के बाद की गई सुरक्षा व्यवस्था को और भी अधिक चाक चौबंद बनाने की दिशा में केंद्र सरकार ने सरकारी स्वामित्व वाली भारत इलेक्ट्रानिक्स लिमिटेड से बॉडी स्कैनर का शीघ्र से शीघ्र प्रदर्शन करने को कहा था। लोकसभा सचिवालय ने हालांकि इस सुरक्षा प्रणाली को बजट सत्र से ही शुरू करने का प्रयास किया था, लेकिन उसके बाद लोकसभा उपाध्यक्ष करिया मुंडा की अध्यक्षता वाली संसद परिसर सुरक्षा समिति ने इससे पहले समिति ने सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल को इन उपकरणों की व्यवहायर्ता का अध्ययन करने के लिए विभिन्न देशों में भी भेजने का सुझाव दिया था जिसे बाद में टाल दिया गया, लेकिन इसके बावजूद बॉडी स्कैनर की जानकारी होने के बाद स्वयं सांसद अपनी निजता की सुरक्षा के नाम पर बॉडी स्कैनर लगाए जाने का विरोध कर रहे हैं। यही कारण है कि संसद में बॉडी स्कैनर लगाने के लिए जितनी तेजी से प्रक्रिया शुरू की जा रही थी उसे सांसदों के विरोध को देखते हुए फिलहाल एक झटके में टालने पर विवश होना पड रहा है। अब सरकार ने इस सुरक्षा प्रणाली से सांसदों और वरिष्ठ नौकरशाहों को छूट देने का निर्णय लिया है। दरअसल बॉडी स्कैनर सुरक्षा प्रणाली के तहत प्रवेश करने वाले हरेक व्यक्ति को एक सात मीटर के एक बॉक्स से गुजरना पड़ता है, जिससे उसके पूरे शरीर का ऐक्सरा मॉनीटर पर आ जाता है, जिसे सांसद निजता के लिए अच्छा नहीं मानते। हालांकि संसद भवन पर 2001 में हुए आतंकी हमले के बाद समूचे परिसर में सुरक्षा व्यवस्था लगातार कड़ी से कड़ी होती जा रही है। ऐसी स्थिति में फिलहाल संसद और सांसदों की सुरक्षा को पुख्ता करने वाली जांच प्रक्रिया में बॉडी स्कैनर लगाए जाने की महत्वाकांक्षी परियोजना को खुद सांसदों के विरोध के सामने पलीता लगाया जा रहा है, लेकिन माना जा रहा है कि सरकार संसद की सुरक्षा व्यवस्था को चाक चौबंद करने के लिए सांसदों और वरिष्ठ नौकरशाहों के अलावा संसद परिसर में प्रवेश करने वाले अन्य लोगों की जांच के लिए इस महत्वकांक्षी योजना को आगे बढ़ाएगी? यदि लोकसभा सचिवालय के सूत्रों की माने तो वह चाहता है कि सांसद खासतौर पर संसद सत्र चालू होने के दौरान खुद को बॉडी स्कैनरों की जांच के दायरे में आकर एक आदर्श मिसाल कायम करें। सुरक्षा समिति से जुड़े एक अधिकारी का कहना है कि सांसदों के विरोध के कारण ही समिति की पिछले दिनों हुई बैठक में बॉडी स्कैनर लगाए जाने के संबंध में कोई फैसला नहीं हो सका, लेकिन व्हीकल स्कैनर लगाए जाने की दिशा में कुछ प्रगति हुई है। यह भी संभव है कि शुरुआत में बॉडी स्कैनर उन प्रवेश द्वारों पर ही लगाए जाएं, जहां से आम नागरिकों का प्रवेश संसद परिसर में होता है। संसद की त्रिस्तरीय सुरक्षा के महत्वपूर्ण अंग वाच एंड वार्ड के अधिकारी मानते हैं कि संसद में रोजाना और विशेषकर सत्र के चालू रहने पर लाखों फाइलें और टनों दस्तावेज परिसर में आते हैं, जिनकी मैनुअल जांच करना आसान नहीं है, इसलिए संसद में व्हीकल स्कैनर लगाए जाने की जरूरत पिछले काफी समय से महसूस की जा रही थी। यदि बात की जाए कि बॉडी स्कैनर सुरक्षा प्रणाली क्या है तो फुल बॉडी स्कैनर कहलाने वाली इन मशीनों को वैज्ञानिकों ने तकनीकी दृष्टि से दो वर्गों में बांटकर देखा है, जिसमें एक वे जो एक्स-रे किरणें पैदा करती हैं और दूसरी वे जो टेराहेटर्स फ्रीक्वेंसी वाली माइक्रोवेव तरंगों का उपयोग करती हैं। एक्स-रे किरणों वाले बॉडी स्कैनरों को 9/11 हमले के बाद सबसे अधिक अमेरिका में आजमाया जा रहा है, लेकिन उन में और मेडिकल एक्स-रे मशीनों में एक बड़ा अंतर है। जर्मनी की फ्र्राउनहोफर सोसायटी के हाई फ्रीक्वेंसी और राडार तकनीक संस्थान के हेलमुट एसन मानते हैं कि ये एक्स रे मशीनें बहुत ही कम विकिरण के साथ काम करती हैं। यह हानिकारक तो बिल्कुल नहीं हैं और उनकी विकिरण मात्रा उससे भी कम होती है, जो एक सामान्य टेलीविजन सेट का पिक्चर ट्यूब एक घंटे में पैदा करता है। लेकिन यह सत्य है कि जांच के दौरान इनसे ऐसी तस्वीरें बनती हैं, जो लोगों को निर्वस्त्र या नंगा दिखाती हैं। यही कारण है कि इसका खासकर इस्लामिक देशों ने महिलाओं की जांच की दृष्टि से विरोध किया है।
बॉडी स्कैनर कितने अचूक?
ऐसे में सवाल है कि बॉडी स्कैनर क्या हर तरह के हथियार और बम अचूक ढंग से पहचान और दिखा सकते हैं? तो वैज्ञानिक मानते हैं कि आजकल के आतंकवादी तरल विस्फोटकों की इतनी कम मात्रा लेकर चलते हैं कि उसे कंडोम या इंजेक्शन के सीरिंज तक में छिपाया जा सकता है, जैसाकि पिछले दिनों संदिग्ध नाइजीरियाई आतंकवादी अब्दुलमुतल्लब ने दुनिया को एक अजीब धर्मसंकट में डाल दिया था। इसमें जांच की प्रक्रिया कुछ ऐसी है कि जो कुछ भी प्लास्टिक जैसा है, उसे पकड़ पाना बहुत मुश्किल है। जिन स्कैनरों की बात चल रही है, वे इसे आधार मान कर बने हैं कि हमरी त्वचा, हमारे शरीर और किसी दूसरी वस्तु के विद्युतचुंबकीय गुणों के बीच काफी अंतर है। यह दूसरी वस्तु जितनी ही ठोस होगी, उतनी ही आसानी से पकड़ में आयेगी। झीने प्लास्टिक ओर प्लास्टिक के विस्फोटकों के मामले में बात का बनना मुश्किल है। यदि इस सुरक्षा प्रणाली का प्रयोग करके सरकारें ऐसा ढोल पीट रही हैं कि मानों उन्हें आतंकवाद से लड़ने के लिए कोई रामबाण दवा मिल गई है उसे भ्रम ही माना जाना चाहिए।

नीति में नहीं कूटनीति में बदलाव जरूरी

ओ.पी. पाल
मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच कड़वाहट ने वैसा ही रूप ले लिया है, जैसा कारगिल युद्ध के बाद ले लिया था। कारगिल युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच संवाद बहाल करने की कोशिशों पर पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने आगरा शिखर वार्ता में पलीता लगा दिया था तो इस बार अपने अपने आकाओं के दिशा-निर्देशों पर पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने पैंतरा बदला है। तब की तरह अब भी पाकिस्तान आतंकवाद के मोर्चे पर बुरी तरह घिरा हुआ है। लेकिन गंभीर बात यह है कि दोषी होने के बावजूद पाकिस्तान का ही रुख आक्रामक है। वह ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ कहावत को चरितार्थ करता दिख रहा है, जबकि हम बुरी तरह रक्षात्मक दिख रहे हैं। आखिर हम रक्षात्मक क्यों दिखते हैं, क्या हमारी कूटनीति में कुछ गंभीर खामियां हैं? क्या अब समय आ गया है कि यूपीए सरकार अपनी पाकिस्तान नीति पर पुनर्विचार करे? आखिर पाकिस्तान ही वार्ता को विफल कराने में क्यों अड़ा हुआ है?
भारत-पाकिस्तान संबंधों के विशेषज्ञ प्रो. कलीम बहादुर कहते हैं कि पाकिस्तान की उग्रता और वार्ता को विफल कराने का राज किसी से छिपा नहीं है। मुंबई हमला मामले में आतंकी डेविड कोलमैन हैडली के खुलासे से उसकी नींद उड़ी हुई है। इस खुलासे में पाकिस्तानी सेना और आईएसआई घेरे में है, जिसके हाथों में पाकिस्तान की वास्तविक सत्ता है। फिर भारत ने पाकिस्तान की उसी दुखती रग पर हाथ रख दिया। इससे पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी का तिलमिलाना स्वाभाविक था। कुरैशी को यह भी पता है कि वे जिस देश के विदेश मंत्री हैं, वहां सेना और आईएसआई के खिलाफ जाना अपनी बर्बादी को निमंत्रण देना है। आप कहेंगे कि कुरैशी द्वारा भारतीय गृह सचिव की तुलना आतंकवादी हाफिज सईद से करने पर भी भारतीय विदेश मंत्री की चुप्पी गलत नहीं थी। अब किसी जिम्मेदार देश के गृह सचिव की तुलना आतंकवादी से करके पाकिस्तान ने अपनी हताशा ही जाहिर की है, जबकि भारत ने चुप रह कर साबित किया है कि वह पाकिस्तान की तरह अराजक नहीं, बल्कि जिम्मेदार राष्ट्र है। जिस देश के विदेश मंत्री को कूटनीतिक शिष्टता और मेहमान के आदर का एबीसीडी भी नहीं पता हो तो भारत इस पागलपन और ओछेपन का उसी लहजे में जवाब ही क्यों दे? मुझे लगता है कि भारत की पाकिस्तान नीति सही है। आप वार्ता नहीं करेंगे तो उसके चेहरे से नकाब कैसे हटाएंगे। हां, अब कूटनीतिक सावधानी बरतने की जरूरत है। कल की घटना से साफ हुआ है कि पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई से कन्नी काट रहा है। इसलिए इस मसले पर पाकिस्तान को दुनिया के मंचों पर घेरने और दबाव बनाने में महारत दिखानी होगी।
विदेशी मामलों के एक अन्य विशेषज्ञ प्रशांत दीक्षित भी मानते हैं कि पाकिस्तान के आक्रामक तेवर से भारत को कोई घाटा होने वाला नहीं है। पाकिस्तान की उग्रता और भारत की चुप्पी के सवाल पर उन्होंने कहा कि भारत चुप नहीं संयत था। चुप रहने और संयत रहने में बड़ा अंतर है। सभी जानते हैं कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई दोनों देशों को समग्र वार्ता की राह पर आगे बढ़ने ही नहीं देना चाहती। पाकिस्तानी सेना और आईएसआई अभी डेविड कोलमैन हैडली के खुलासे से मुसीबत में है तो दूसरी बड़ी बात यह है कि यही दोनों वहां आतंकवाद के नाम पर कमाई कर मालामाल हो रहे हैं। इसलिए वार्ता सेना के दबाव में टूटी न कि भारत की उपेक्षा के कारण। पाकिस्तान ने भले ही आक्रामक रुख अपना कर हेडली प्रकरण से उपजे दबाव से खुद को बाहर करने का प्रयास कर रहा हो, लेकिन जिस प्रकार अभी इस मसले पर अमेरिका और पश्चिमी देशों के हित भारतीय हित से मेल खा रहे हैं, उससे पाकिस्तान का यह वार उसके काम नहीं आने वाला। वार्ता बंद करना कोई हल नहीं है। हां, यह सही है कि सत्ता के कई केंद्र और कठपुतली लोकतांत्रिक सरकार होने के कारण वार्ता किससे की जाय, यह एक मुश्किल भरा सवाल है, लेकिन भारत को पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए उसे वार्ता से इंकार नहीं करना होगा। हां, यह भी नहीं दिखाना होगा कि वह पाकिस्तान से बातचीत के लिए जल्दबाजी दिखा रहा है। कमजोर लोग जल्दी गुस्सा ही नहीं करते, बल्कि आक्रमण भी करते हैं। ऐसा ही पाकिस्तान के साथ हो रहा है।
पाकिस्तान-भारत संबंधों पर पैनी निगाह रखने वाले कमर आगा कहते हैं कि पाकिस्तान नीति में बदलाव के बदले भारत को कूटनीतिक बदलाव लाने होंगे। जो गिने चुने देश पाकिस्तान के साथ हैं, उनसे बातचीत कर पाकिस्तान को अलग-थलग करना होगा, साथ ही अमेरिका तथा पश्चिमी देशों के वर्तमान कठोर रुख को बनाए रखने का भी प्रबंध करना होगा। आगा कहते हैं कि पाकिस्तान जितनी बार वार्ता की मेज पर आएगा, उतनी ही बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी छवि और ताकत कमजोर होगी। चाहे वार्ता का कोई निष्कर्ष निकले या न निकले। आपको याद होगा कि कारगिल युद्ध के बाद जनरल परवेज मुशर्रफ ने आगार शिखर वार्ता को इसी प्रकार बेमानी साबित कर दिया था। लेकिन दुनिया के दबाव में उसे बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ संयुक्त घोषणा पत्र में यह लिखित भरोसा देना पड़ा कि पाकिस्तान अपनी भूमि का उपयोग भारत के खिलाफ नहीं करने देगा। आप कहेंगे कि इस संयुक्त घोषणा के बाद भी पाकिस्तान की नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया तो इसका लाभ क्या है। इसका लाभ यह है कि भारत उसे इसी घोषणा पत्र के सहारे घेरता रहा है और दुनिया भर में उसके खिलाफ माहौल बना है कि समझौते के बाद भी पाकिस्तान उसका पालन नहीं करता। ऐसे में पाकिस्तान की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहले से बुरी तरह घट चुकी साख और कमजोर ही हुई है। अब विदेश सचिव स्तर की वार्ता टूटने के बाद उसकी छवि को और झटका लगेगा। जहां तक भारत की विदेश नीति का सवाल है तो मैं न तो इसे कमजोर मानता हूं और न ही अपरिपक्व। लोकतांत्रिक और जिम्मेदार देश होने के नाते भारत को अपना विकल्प हमेशा खुला रखना होगा। यही उसकी कूटनीति भी है और इसमे कुछ भी गलत नहीं है।

काबुल में भी मिलेंगे कृष्णा और कुरैशी

ओ.पी. पाल
अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में अगले सप्ताह यानि 20 जुलाई को दाता देशों के होने वाले एक सम्मेलन में भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्णा जा रहे हैं और वहीं पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी भी इस सम्मेलन में शिरकत करने वाले हैं। ऐसी संभावनाएं हैं कि इस्लामाबाद में बिगड़ी बातचीत के बाद दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की इस तल्खी के बावजूद फिर एक मुलाकात होगी? सवाल है कि मुंबई हमलों के बाद कटुता की जमी बर्फ बातचीत का दौर शुरू होने से पिघलनी शुरू हुई थी, लेकिन पाकिस्तान ने उसका तापमान फिर घटा दिया है, जिसके कारण दोनों देशों के बीच फिर से कडवाहट के बीज उपजने लगे हैँ। हालांकि पाकिस्तान की ओर से बातचीत के दौरान बढ़ी तल्खी को दूर करने की संभावनाएं तलाशने के संकेत हैं जिस दृष्टि से काबुल काबुल सम्मेलन में दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की मुलाकात महत्वपूर्ण हो सकती है।
पाकिस्तान की और से कश्मीर की जिद ने भारत के साथ बातचीत के जरिए एक-दूसरे के बीच अविश्वास की खाई को दूर करने के प्रयास को ऐसा पलीता लगा कि दोनों देशों के बीच संबन्धों को लेकर पिघलती बर्फ फिर से जमती नजर आ रही है, जबकि भारत का आज भी इस बर्फ को पानी में बदलने का प्रयास है। यह बात अलग है कि इस तल्खी के बावजूद विफल हुई बातचीत के बावजूद दोनों देश वार्ताओं को जारी रखने की बात कर रहे हैं, लेकिन सवाल इस बात का है कि हमेशा की तरह इस बार भी वार पाकिस्तान की तरफ से हुआ वह भी भारत की पीठ पर। अब इंतजार इस बात का है कि अगले सप्ताह काबुल में यदि दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के बीच मुलाकात हुई तो कुरैशी का कृष्णा के प्रति किस प्रकार का रूख रहेगा? हालांकि पाकिस्तान की ओर से ऐसे संकेत आ रहे हैं कि दो दिन पहले बातचीत के बाद बढ़ी तल्खी को दूर करने की संभावनाओं को तलाश जा रहा है। क्योंकि पाकिस्तान को इस बात का भी दर्द सता रहा है कि अफगानिस्तान के मामले में भारत क्यों शामिल है और इस सम्मेलन में कृष्णा के रूप में भारत की मौजूदगी जाहिर तौर पर पाकिस्तान की दुखती रग पर चुभन से कम नहीं होगी। जैसा कि पाक मामलों के जानकार विशेषज्ञ मानते आ रहे हैं कि पाकिस्तान के सामने कश्मीर मुद्दे से ज्यादा अब अफगानिस्तान बनता जा रहा है जहां वह भारत की किसी प्रकार की सहयोगी दखलंदाजी को को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है। विशेषज्ञ तो यह भी मानते हैं कि पाकिस्तान को इस बात का बेसब्री से इंतजार है कि अमेरिका अफगानिस्तान से कब वापसी करे और वह अफगानी तालिबान के सहारे वहां कैसे प्रवेश करे। जहां तक इस सम्मेलन का सवाल है यह सम्मेलन युद्ध की विभीषिका से जूझ रहे अफगानिस्तान में विकास कार्यो के लिए अरबों डॉलर की सहायता देने की घोषणाओं को वास्तविकता के धरातल पर उतारने का आग्रह करने के लिए मुल्क के प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा किया जा रहा आयोजन है। भारत और पाकिस्तान के बीच हाल में हुई बातचीत में गहरे मतभेद उभरने के बाद दोनों मुल्कों के आपसी रिश्तों में कूटनीतिक कड़वाहट पैदा हो गई है। दोनों पक्षों ने गत गुरुवार को इस्लामाबाद में हुई बातचीत के दौरान उद्देश्यों पर कोई प्रगति नहीं होने के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराया था। इसके अलावा कुरैशी ने कृष्णा के बारे में अप्रिय टिप्पणियां भी की थीं। बहरहाल, पाकिस्तान अब इस मामले को लेकर कुछ नरम हुआ है। उसके नेताओं ने शनिवार को बयान दिया कि पाकिस्तान द्विपक्षीय बातचीत जारी रखने कच इच्छुक है और वह भारत के साथ रिश्तों को सामान्य बनाने के प्रति गंभीर भी है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने शनिवार को कहा कि पाकिस्तान भारत के साथ बातचीत जारी रखना चाहता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुझे सभी मुद्दों पर बातचीत करने के लिए आश्वस्त किया है। ऐसे में कुरैशी भी मौका चूकने वाले नहीं थे जिन्होंने कि हम भारत के साथ रिश्ते सामान्य करने के प्रति बहुत गंभीर हैं।

सिंबल को कीबोर्ड पर लाने की कवायद!

ओ.पी. पाल
भारतीय मुद्रा को एक प्रतीक चिन्ह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान देने के लिए सरकार ने उसे लागू करने के उद्देश्य से काम प्रक्रिया में तेजी शुरू कर दी है, जिसके लिए रुपये के प्रतीक चिन्ह यानि सिंबल को जल्द कंप्यूटर के की बोर्ड पर लाने की कवायद को तेज कर दिया है। भारतीय रुपये की नई पहचान डॉलर, पाउंड, येन और यूरो की तरह अब भारतीय मुद्रा 'रुपया' को भी प्रतीकात्मक पहचान मिल गई, जिसे हाल ही में भारत सरकार के कैबिनेट ने जिस प्रतीक चिन्ह को मंजूरी दे दी है अब उसे कंप्यूटर के की बोर्ड पर लाने की पहली चुनौती सरकार के सामने है जिसके लिए सरकार इस चिन्ह को यूनिकोड के रूप में की बोर्ड पर लाने में जुटी हुई है। सरकार को उम्मीद है कि जल्द ही यह सिंबल जल्द कंप्यूटर के की बोर्ड पर भी आ जाएगा। चूंकि सरकार इस प्रतीक चिन्ह को मंजूरी देकर कह चुकी है कि देश में इसे 6 महीने के अंदर अपना लिया जाएगा, जबकि इसे वैश्विक पहचान मिलने में अभी 18 से 24 माह का समय लग सकता है। सरकार रुपये के प्रतीक चिह्न के अस्तित्व में आते ही इसे कागज पर छापने के प्रयासों को भी तेज कर दिया गया है। सरकार अब रुपये के चिह्न को टापराइटरों और कंप्यूटर के की बोर्ड में जोड़ने की कोशिश में लगी है। रोमन लिपि के 'आर' और देवनागरी लिपि के 'र' से मिलाकर तैयार किया गया भारतीय मुद्रा के इस चिह्न को अभी तक प्रकाशित करने के लिए कुछ तकनीकी दिक्कतों का समाना करना पड़ रहा है। कंप्यूटर कीबोर्ड यूरो भी उन चंद मुद्राओं में है जिनका खास निशान है में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जोड़ना इतना आसान काम नहीं हैं क्योंकि कीबोर्ड की इस 'की' या कुंजी का उपयोग ज्यादातर सिर्फ भारत में ही होगा। सरकार इसे यूनिकोड मानक और विश्व की अन्य स्क्रिप्ट्स में जोड़ने की भी कोशिश कर रही है जिससे इसे आसानी से प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर प्रकाशित किया जा सके। अभी तक सिर्फ पाउंड ही ऐसी मुद्रा है जिसके चिह्न को उसके नोट पर प्रकाशित किया जाता है। जहां तक यूनिकोड का सवाल है यह एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय मानक है जो टेक्स्ट डेटा को ग्लोबली इंटरचेंज करता है। यह ऐसा मानक है जिस पर देश-विदेश की प्रमुख आईटी कंपनियों, संगठनों, संस्थाओं और सरकारों ने अपनी सहमति की मुहर लगा दी है। अंग्रेजी, हिन्दी, जापानी, चीनी, अरबी, जर्मन, इतालवी, रूसी आदि हर भा हां भाषा के मर्ज की सिर्फ एक दवा, यूनिकोड. यूनिकोड में दुनियाभर की भाषाआऊं के प्रत्येक 'केरैक्टर' के लिए एक 'कोड' तय कर दी जाती हैं. फिर चाहे कंप्यूटर का 'आपरेटिंग सिस्टम', सॉफ्टवेयर या कोई अन्य भाषा ही क्यों न हो। कंप्यूटर मूल रूप से 'बाइनरी' (अंकीय) फोरमैट पर काम करता है। इसमें प्रत्येक 'केरेक्टर' के लिए एक निश्चित अंक निर्धारित कर दिया जाता है। दरअसल यूनिकोड में संसार की सभी लिखी जा सकने वाली भाषाओं में प्रयुक्त होने वाले केरेक्टर समेटने की क्षमता है जो तकनीकी रूप में 16 बिट की एनकोडिंग पर काम करता है और यह एक लाख से भी ज्यादा के केरेक्टर कोड उपलब्ध करवा सकता है जो कि विश्व की सभी भाषाओं की आवश्यकता से भी कहीं ज्यादा कारगर सिद्ध हो रहा है।
यूनिकोड में ऐसे शामिल होगा रुपया
भारतीय रुपये को कीबोर्ड पर लाने में एक साल का समय लग सकता है और उसे अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति मिलने में 2 साल का समय लग सकता है। यह तो सरकार भी मानकर चल रही है। भारतीय रुपये के चिह्न को यूनिकोड फॉर्मेट में लाने के लिए उसे पहले यूनिकोड सहायता संघ की कमेटी के पास भेजा जाएगा ताकि उसे यूनिकोड के डेटाबेस में शामिल किया जा सके। इस प्रतीक को भारतीय मानक 13194:1991-इंडियन स्क्रिप्ट कोड फॉर इंफॉर्मेशन इंटरचेंज में भी शामिल किया जाएगा। इसके लिए ब्यूरो आफ इंडियन स्टेंडर्ड्स की मौजूदा सूची में परिवर्तन करना बेहद जरूरी है।इंडियन स्क्रिप्ट कोड फॉर इंफॉर्मेशन इंटरचेंज भारतीय भाषाओं को कंप्यूटर पर लिखने के लिए कीबोर्ड के लेआउट सहित बहुत से कोड निर्धारित करता है। भारत सरकार हाडर्वेयर निर्माताओं के लिए कीबोर्डो में रुपये के प्रतीक को शामिल करना अनिवार्य बना सकती है। यूनिकोड संघ के अनुमोदन के बाद असाइन किए गए कीबोर्ड संयोजन या आपरेटिंग सिस्टम के कैरेक्टर मैप से भी इस चिह्न को बनाया जा सकेगा। इस संबन्ध में माइक्रोसॉफ्ट का कहना है कि यूनिकोड संघ की स्वीकृति मिलने के बाद और वेंडर्स को इसकी सूचना मिलने के बाद ही वह अपने अगले उत्पाद में रुपये के इस प्रतीक को शामिल करेगी। ब्यूरो आफ इंडियन स्टेंडर्ड्स द्वारा प्रतीक को कीबोर्ड मानक के रूप में सूचिबद्ध किए जाने के बाद मेन्यूफेक्चररर्स एसोसिएशन आॅफ इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (मेट) अपने सदस्यों से अपनी उत्पादन प्रक्रिया में बदलाव किए जाने पर विचार-विमर्श करने के बाद ही प्रतीक को कीबोर्ड पर लाने के बारे में निर्णय लेगी। बहरहाल, यह समस्त भारतीयों के लिए गौरव और रुपये की गरिमा का विषय है कि अंतर्राष्ट्रीय पटल पर रुपया अपनी एक अनूठी पहचान के साथ दमकेगा और डॉलर के समान कंप्यूटर पर सज कर अपनी सुनहरी उपस्थिति दर्ज करेगा।

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

क्या परवान चढ़ेगी भारत-पाक समग्र वार्ता!

ओ.पी. पाल
भारत में मुंबई हमलों के बाद शुरू हुई भारत और पाकिस्तान के बीच शुरू हुई बातचीत भला ऐसे कैसे समग्र वार्ता को बहाली के रास्ते पर ला सकेगी, जब पाकिस्तान लश्कर-ए-तैयबा के आतंकी हाफिज सईद के भारत के खिलाफ जहरीले बयानों की तुलना भारत के सचिव जीके पिल्लई के बयानो से करने पर आमदा हो। अभी दोनों देशों के बीच मंत्री स्तरीय वार्ता को खत्म हुए पूरे 24 घंटे भी नहीं हैं कि पाकिस्तान की और से तल्खी भरे बयानों से भारत को घेरने का प्रयास शुरू हो गया है। विशेषज्ञ मानते हैं कि दोनों देशों के बीच संबन्धों में सुधार में सबसे बड़ी बाधा पाकिस्तान से संचालित आतंकवाद है जिसके खात्मे के बिना दोनों देशों के बीच स्थगति समग्र वार्ता पटरी पर आना असंभव है।भारत-पाक के बीच विश्वास बहाली के उद्देश्य को लेकर भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्णा के नेतृत्व में पाकिस्तान से शुक्रवार को आज ही वापस लौटा तो उसके पीछे से पाकिस्तान के तीखे प्रहार शुरू हो गये जो पाकिस्तान की पुरानी नीयत है। पाकिस्तान से स्वदेश लौटते ही विदेश मंत्री एसएम कृष्णा ने पाक यात्रा के दौरान बातचीत का जिक्र करते हुए कहा कि जब तक आतंकवाद की समस्या का हल नहीं होता तब तक भारत की सभी कोशिशें बेकार हैं। कृष्णा का कहना है कि हमारी तरह पाकिस्तान भी यह तो मानता है कि दोनों देशों के बीच सामान्य संबन्धों में सबसे बड़ी रूकावट आतंकवाद है, लेकिन सवाल उठाया कि उन्हें नहीं लगता कि आश्वासन देकर भी पाकिस्तान आतंकवाद खासकर मुंबई हमले के आरोपी आतंकवादियों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई कर पाएगा। विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने गृह सचिव जीके पिल्लई की तुलना जेयूडी के प्रमुख हाफिज सईद से करने के लिए पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी को आडे़ हाथों लेते हुए कहा कि दोनों के बीच कोई समानता नहीं है। भारत चाहता है कि दोनों देशों के बीच अविश्वास की खाई को खत्म किया जाए। कृष्णा ने यह भी स्पष्ट किया है कि जब तक आतंकवाद के मामले पर पाकिस्तान मुकल्लम कार्रवाई अमल में नहीं लाता तब तक दोनों देशों के बीच समग्र वार्ता शुरू करना असंभव है। मसलन कि मुंबई हमलों की जांच के मुद्दे पर भारत ने पाकिस्तान से स्पष्ट कहा कि जब तक आतंकवाद का मसला हल नहीं होता, तब तक कोई भी कवायद कारगर नहीं हो सकेगी। अब सवाल है कि पाकिस्तान को यदि समग्र वार्ता के लिए आगे बढ़ना है तो उसे आतंकवाद को खत्म करने के लिए ठोस कार्रवाई के प्रमाण देने होंगे। हालांकि भारत की तरह पाकिस्तान भी मान रहा है कि दोनों देशों के बीच हुई इस बातचीत में कोई बड़ा फैसला नहीं हो सका, लेकिन इस प्रकार बातचीत का दौर जारी रखने की सहमति अवश्य बनाई गई। विड़म्बना यह है कि जब विदेश मंत्री एसएम कृष्णा भारतीय प्रतिनिधिमंडल के साथ स्वदेश लौटे तो उसी दौरान पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी का भी तल्खी भरा बयान आया और भारत को आरोपित करने की नीयत को जगजाहिर किया। कुरैशी का तर्क रहा कि इस बातचीत के लिए भारत जहनी तौर पर तैयार नहीं था और न ही उसके पास कोई रोड मैप था। पाकिस्तान तो बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए अपनी और से आतंकवाद को कोई अड़चन मानने को तैयार नहीं है और यहां तक कि तमाम खुलासे होने के बाद भी पाकिस्तान नहीं मानता कि पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई का लश्करे जैसे आतंकी संगठनों के साथ कोई गठजोड़ है। विदेश मामलों के एक विशेषज्ञ का कहना है कि इस्लामाबाद में दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के बीच हुई बातचीत के बारे में पहले से ही कहा जा रहा था कि इससे कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। पाकिस्तान की नीयत है कि वह अपने महत्वपूर्ण मुद्दों को हल कराने के लिए भारत से बातचीत करे, लेकिन वह दोनों देशों के बीच बढ़ती तल्खी की जड़ में नहीं जाना चाहता। मुंबई आतंकी हमले के बाद आतंकवाद के खात्मे के लिए पाकिस्तान के प्रति भारत के रूख में जो सख्ती है उसे बरकरार रखना चाहिए। यह कटु सत्य भी है कि दोनों देशों के बीच बढ़ते आतंकवाद की गतिविधियां हैं जिनके खिलाफ पाकिस्तान को विश्व समुदाय की भावनाओं को देखते हुए सख्त कार्रवाई करने की जरूरत है। यदि वास्तव में पाकिस्तान समग्र वार्ता को फिर से शुरू कराना चाहता है तो उसे आतंकवाद पर शिकंजा कसने की योजना बनानी चाहिए। विशेषज्ञों की माने तो जहां तक दोनों देशों के बीच अन्य मुद्दे हैं उन्हें दोनों देशों के बीच विश्वास प्रगाढ़ होने पर आसानी से हल किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए आतंकवाद का मुद्दा पाकिस्तान को भी अत्यंत महत्वपूर्ण समझकर चलना होगा। पाकिस्तान के एक विश्लेषक प्रो. शमीम अख्तर की माने तो दोनों देशों के बीच बातचीत सफल हों या न हों, यह बात बड़ी नहीं है। इससे महत्वपूर्ण बात यह है कि वार्ताएं जारी रहनी चाहिए। जहाँ तक समस्या का संबंध है तो ये समस्याएं जीवन का हिस्सा होती हैं। आज कश्मीर समस्या है तो कल कोई और होगी। उनका कहना है कि बातचीत होती रही तो तो कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगी।

संयम बरतना सीखे भारत-पाक

ओ.पी. पाल
भारत और पाकिस्तान पडोसी देशहोने के नाते एक-दूसरे से संबन्धों को सुधारने की बात तो करते हैं लेकिन अभी तक की बातचीत के दौरान देखा जा रहा है दोनों देश एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश अधिक करते नजर आ रहे हैं। हालांकि पडोसी होने के कारण अनसुलझे मुद्दों पर दोनों में नोंक-झोंक होना स्वाभाविक है। इस्लामाबाद में भारत के विदेशमंत्री एसएम कृष्णा और पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के बीच सभी मुद्दों पर बातचीत हुई जिन्हें दोनों देश मिलकर हल करना भी चाहते हैं, लेकिन समझदारी और संयम बरतने को कोई सा भी देश तैयार नहीं है। दोनों देशो के बीच जिस प्रकार विभिन्न मुद्दों को लेकर एक-दूसरे ने आरोप-प्रत्यारोप लगाते हुए सवाल खड़े किये हैं उससे कोई समाधान निकलने वाला नहीं है। विदेश मामलों के विशेषज्ञ प्रशांत दीक्षित का मानना है कि इस बदलते नजरिए को देखते हुए दोनों ही देशों को संयम बरतने की जरूरत है। इस्लामाबाद में कल संयुक्त प्रेस वार्ता में सबकुछ ठीक चल रही थी, लेकिन पाक विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने पाकिस्तानी पत्रकारों को यह दिखाने के लिए कि पाक अपने लोगों के साथ है मुंबई हमले में आईएसआई का हाथ होने के आरोप की निंदा की। इसी से साफ नजर आने लगा कि वह भारत को नीचा दिखाना चाहते हैं। भारत ने जहां 26 नंवबर को मुंबई में हुए हमलों की जांच में पाकिस्तान की ओर से कोई खास प्रगति नहीं होने और कश्मीर में सीमा पार से घुसपैठ का मुद्दा उठाया, तो वहीं पाकिस्तान ने कश्मीर में मानवाधिकार के कथित हनन और बलूचिस्तान में भारत की तथाकथित भूमिका पर सवाल खड़े किए। 26/11 के मुंबई हमले के बाद दोनों देशों का ऐसा नजरिया बदला है कि कोई भी एक-दूसरे की शक्ल देखना पसंद नहीं करता। यही कारण है जब पाकिस्तान बातचीत के लिए भारत आता है तो यह सोचकर आता है कि उसे दूसरे को नीचा कैसे दिखाना है। इसी प्रकार भारत का भी नजरिया कुछ ऐसा ही बनता जा रहा है। विदेश मंत्री एसएम कृष्णा को हेडली की बात पर हफीज सईद का नाम जोड़ना पाकिस्तान को पसंद नहीं आया और पाकिस्तान हेडली के उस बयान को भी निंदनीय बता रहा है कि इस हमले में आईएसआई का हाथ है। प्रशांत दीक्षित ऐसे में सवाल उठातें हैं कि दोनों देश एक-दूसरे के नजदीक कैसे आएंगे। सीमापार की घुसपैठ हो या आतंकवाद के आरोपियों को सजा देने का मामला हो तो पाकिस्तानी विदेश मंत्री कुरैशी के जवाब तल्खी भरे ही नजर आए। ऐसे ही कुरैशी द्वारा कश्मीर में हालिया घटनाओं मानवाधिकार हनन का मुद्दा उठाए जाने पर भारतीय विदेश मंत्री एसएम कृष्णा भी उसी लहजे में जवाब देने से नहीं चूके। इससे तो लगता है कि बातचीत के दौरान भी तल्खी है जिसका मतलब अभी दोनों देशों को एक-दूसरे के प्रति विश्वास कायम करने में समय लगेगा। हालांकि दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के बीच आतंकवाद, आत्मविश्वास बढ़ाने वाले मापदंडों, जम्मू-कश्मीर, सियाचिन, सर क्रीक विवाद और आर्थिक विकास समेत सभी महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा हुई है, लेकिन जब तक दोनों देश एक पडोसी की तरह आपसी व्यवहार और विश्वास की भावना से दूर रहेंगे और तल्खी भरे सवाल होते रहेंगे तो इन वार्ताओं का मकसद कैसे पूरा होगा? इस बेनतीजा वार्ता से तो यही लगता है कि भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों के बीच लंबे समय के बाद हुई पहली बातचीत में शांति प्रक्रिया की फिर से शुरुआत हो सके ऐसी कोई ताजा नई स्थिति सामने नहीं आई है, लेकिन बातचीत जारी रखने पर सहमति अवश्यक बनी है। मेरा अपना दृष्टिकोण है कि दोनो देशों की मीडिया को भी भारत-पाक संबन्धों को लेकर हो रही पहल में सकारात्मक भूमिका निभाने की जरूरत है, जिसका अभी तक अभाव देखा जा रहा है। दरअसल भारत और पाकिस्तान में अभी तक उस विश्वास की खाई को नहीं पाटा जा सका है जिसमें महत्वपूर्ण मुद्दों की उपेक्षा करने का आरोप एक-दूसरे देश पर लगता रहा है। विशेषज्ञों की माने तो यह भी नहीं है कि एक-दूसरे देश आपसी चिंताओं को नहीं समझते, लेकिन यदि दोनों देश समग्र और समझदारी सोच के साथ इस विश्वास को बहाल कर लें तो एक-दूसरे देश की समस्याओं का हल निकल सकता है अन्यथा ये वार्ताएं सवालों के बीच ही उलझ कर रह जाएंगी। मेरा दृष्टिकोण है कि इस समग्र सोच और संयम की पहल यदि पहले भारत ही करे तो शायद पाकिस्तान को भी कुछ समझदारी बरतने की सीख मिल सके।

भारतीय मुद्रा की दुनिया में होगी अलग पहचान!


ओ.पी. पाल   देश ने अब भारतीय मुद्रा को अंतर्राष्ट्रीय पहचान देने के लिए एक प्रतीक चिन्ह यानि सिंबल को मंजूरी दी है, जिसके बाद भारत ऐसा पांचवा देश बन जाएगा जिसकी मुद्रा की अपनी अलग पहचान होगी। अभी तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमरीकी डालर, जापानी येन, ब्रिटिश पौंड और यूरोपिय संघ के यूरो जैसे मुद्रा के प्रतीक चिन्ह हैँ। भारत सरकार का दावा है कि जिस प्रतीक चिन्ह को केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी मिली है उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी निश्चित रूप से स्वीकारा जाएगा और यह प्रतीक चिन्ह भारत को वैश्विक निवेश के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को भी बुलंदियों पर पहुंचाने में सहायक सिद्ध हो सकेगा। भा रतीय रुपये को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान देने के लिए भारत सरकार पिछले काफी दिनों से कवायद करती रही है जिसके लिए भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर की अध्यक्षता में रुपये के प्रतीक चिन्ह के चयन हेतु एक पांच सदस्यीय निर्णायक मंडल बनाया था। इसके लिए तीन हजार प्रविष्टियां मिलने के बाद निर्णायक मंडल ने पांच प्रतीक चिन्हों को केंद्रीय मंत्रिमंडल को सौंपा, जिनमें से एक ऐसे प्रतीक चिन्ह को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आज अपनी मंजूरी प्रदान कर दी, जिसे आईआईटी के पोस्ट ग्रेजुएट डी. उदय कुमार द्वारा डिजाइन किया गया था। इस प्रतीक चिन्ह में देवनागरी में ‘र’ तथा अंग्रेजी में ‘आर’ का मिश्रण है। इस प्रकार से भारतीय रुपये को इस प्रतीक चिन्ह के जरिए उसी प्रकार से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल सकेगी जिस प्रकार अमेरिकी डालर, जापानी येन, ब्रिटिश पौंड और यूरोपीय संघ के यूरो को पहचाना जाता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में इस महत्वपूर्ण फैसले के बाद केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्रीमती अंबिका सोनी ने भारतीय मुद्रा के मंजूर किये गये प्रतीक चिन्ह का प्रदर्शन करते हुए दावा किया है कि इस चिह्न को यूनीकोड मानक, आईएसओ-आइसी 10646 और आईएस 13194 में शामिल करने के बाद इसका इस्तेमाल भारत और देश के बाहर विदेशों में किया जा सकेगा। उनका मानना है कि चूंकि •ाारत के अलावा नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका और इंडोनेशिया जैसे देशों में भी रुपये का प्रचलन है इसलिए भारतीय मुद्रा की इस प्रतीक चिन्ह के साथ रुपये के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान बन सकेगी। अंबिका सोनी का कहना है कि केंद्र सरकार ने भारतीय रुपए के चरित्र को बरकरार रखने के लिए इसे अंतर्राष्ट्रीय पहचान दी है, जो भारतीय अर्थव्यवस्था की तेजी एवं मजबूती को भी रेखांकित करेगा। वहीं भारतीय अर्थव्यवस्था के नई ऊंचाइयों पर पहुंचने और विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत होने तथा भारत के वैश्विक निवेश को भी तरजीह देगा। जहां तक भारतीय रुपये के प्रतीक चिन्ह को लागू करने का सवाल है उसके बारे में श्रीमती सोनी ने बताया कि सरकार का प्रयास है कि देश के सभी राज्यों की सरकारों से इस प्रतीक चिन्ह को लागू करने के लिए सहमति और सुझाव लेने का भी लक्ष्य है, जिसके बाद छह माह के अंदर भारत में इसे लागू कर दिया जाएगा। इसके लिए भारतीय मुद्रा के प्रतीक चिन्ह की एनकोडिंग के बाद नासकाम रुपये को साफ्टवेयर में शामिल करने हेतु भारतीय साफ्टवेयर विकास कंपनियों से संपर्क साधेगा ताकि दुनियाभर में कंप्यूटर इस्तेमाल करने वाले लोग इसका आसानी से उपयोग कर सकें। भारत में बनने वाले कीबोर्ड में इस चिन्ह को शामिल करने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी निर्माता एसोसिएशन (मेट) चिन्ह की अधिसूचना जारी होने के बाद इसे कीबोर्ड में शामिल करने की पहल करेगा। अंबिका का मानना है कि रुपये के इस निशान को भारतीय मानकों में एन्कोड करने की प्रक्रिया में छह महीने लगेगा जबकि यूनीकोड और अन्य मानकों में ऐसा करने के लिए डेढ़ से दो साल लग सकते हैँ। सबसे बड़ी उपलब्धि है कि यह चिन्ह भारतीय रुपये को विभिन्न भाषाओं में एक ही तरह से पेश करने में सहायक होगा। इस प्रतीक चिन्ह को लागू करने के लिए सरकार भारतीय मानक ब्यूरो की मौजूदा सूची में संशोधन भी करेगी। इंडियन स्क्रिप्ट कोड फार इंफारमेशन इंटरचेंज (आईएससीआईआई) के तहत रुपये का चिह्न शामिल होगा। अभी तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिकी डॉलर $, ब्रिटिश पाउंड £, यूरोप की मुद्रा यूरो € और जापानी मुद्रा येन ¥ की ही अलग पहचान थी, जिसके बाद भारतीय मुद्रा की भी एक अलग पहचान होगी।
भारत में कैसे बदलता रहा रुपये का रंग-रूप
रुपया शब्द का उद्गम संस्कृत के शब्द रुप् या रुप्याह् में निहित है, जिसका अर्थ चांदी होता है और रुपये का अर्थ चादी का सिक्का है। रुपया शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम शेर शाह सूरी ने भारत मे अपने शासन [1540-1545] के दौरान किया था। शेर शाह सूरी ने अपने शासन काल मे जो रुपया चलाया वह एक चांदी का सिक्का था जिसका वजन 178 ग्रेन [11.534 ग्राम] के लगभग था। उसने तांबे का सिक्का जिसे दाम तथा सोने का सिक्का जिसे मोहर कहा जाता था को भी चलाया। कालांतर में मुगल शासन के दौरान पूरे उपमहाद्वीप में मौद्रिक प्रणाली को सुदृढ़ करने के लिए तीनों धातुओं के सिक्कों का मानकीकरण किया गया। शेर शाह सूरी के शासनकाल के दौरान शुरू किया गया 'रुपया' आज तक प्रचलन में है। भारत में ब्रिटिश राज के दौरान भी यह प्रचलन में रहा, इस दौरान इसका वजन 11.66 ग्राम था और इसके भार का 91,7 प्रतिशत तक शुद्ध चादी थी। 19वीं शताब्दी के अंत में रुपया प्रथागत ब्रिटिश मुद्रा विनिमय दर, के अनुसार एक शिलिंग और चार पेंस के बराबर था वहीं यह एक पाउंड स्टर्लिग का 1/15 हिस्सा था। 19वीं सदी मे जब दुनिया में सबसे सशक्त अर्थव्यवस्थाएं स्वर्ण मानक पर आधारित थीं तब चादी से बने रुपये के मूल्य में भीषण गिरावट आई। संयुक्त राज्य अमेरिका और विभिन्न यूरोपीय उपनिवेशों में विशाल मात्रा में चादी के स्त्रोत मिलने के परिणामस्वरूप चादी का मूल्य सोने के अपेक्षा काफी गिर गया। अचानक भारत की मानक मुद्रा से अब बाहर की दुनिया से ज्यादा खरीद नहीं की जा सकती थी। इस घटना को 'रुपये की गिरावट के रूप में जाना जाता है। पहले रुपया [11.66 ग्राम] को 16 आने या 64 पैसे या 192 पाई में बाटा जाता था। रुपये का दशमलवीकरण 1869 में सीलोन [श्रीलंका] में, 1957 में भारत मे और 1961 में पाकिस्तान में हुआ। इस प्रकार अब एक भारतीय रुपया 100 पैसे में विभाजित हो गया। भारत में कभी-कभी पैसे के लिए नया पैसा शब्द भी इस्तेमाल किया जाता था। भारत मे भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मुद्रा जारी की जाती है, जबकि पाकिस्तान में यह स्टेट बैंक आफ पाकिस्तान के द्वारा नियंत्रित होता है। वे देश जहां रुपया राष्ट्रीय मुद्रा है- असम, त्रिपुरा, और पश्चिम बंगाल में बोली जाने वाली असमिया और बाग्ला भाषाओं में, रुपये को टका के रूप में जाना जाता है और भारतीय बैंक नोटों पर भी इसी रूप में लिखा जाता है। भारत और पाकिस्तान की मुद्रा 1, 2, 5, 10, 20, 50, 100, 500 और 1000 रुपये के मूल्यवर्ग में जारी की जाती है, वहीं पाकिस्तान मे 5000 रुपये का नोट भी जारी किया जाता है। रुपये की बड़ी मूल्यवर्ग अक्सर लाख [100000] करोड़ [10000000] और अरब [1000000000] रुपये में गिने जाते हैं। गौरतलब है कि अब अमेरिकी डालर, जापानी येन, ब्रिटिश पौंड और यूरोपीय संघ के यूरो की तरह अब भारतीय रुपये का भी अपना प्रतीक चिह्न होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में गुरुवार को हुई केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में यह महत्वपूर्ण फैसला करते हुए रुपये के चिह्न को मंजूरी दी गई।

बुधवार, 14 जुलाई 2010

क्या पीएमओ बनेगा ए. राजा का कवच?

ओ.पी. पाल 
संसद के मानसून सत्र में भी बजट सत्र की तरह 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले पर यूपीए सरकार को विपक्ष बिना घेरे नहीं रहेगा। इसीलिए पीएमओ ने इस घोटाले को लेकर शायद दूरसंचार मंत्री ए. राजा का कवज बनने की तैयारियां शुरू कर दी हैं। जबकि विपक्ष 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले को देश का सबसे बड़ा घोटाला करार देते हुए लगातार ए. राजा के इस्तीफे की मांग करता आ रहा है।दूरसंचार विभाग के टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में ए. राजा को चाहते हुए भी प्रधानमंत्री उन्हें हटाना नहीं चाहते जिसका कारण डीएमके प्रमुख एवं तमिलनाडु के मुख्यममंत्री करुणानिधि हैं जो राजा को हटाने पर यूपीए को झटका दे सकते हैं। इस घोटाले की आंच मानसून सत्र में तेज होने की आशंका को देखते हुए अभी से यूपीए सरकार की बेचैनी बढ़ गई है, हालांकि सरकार को घेरने के लिए विपक्ष के पास महंगाई और नक्सलवाद जैसे एक नहीं दर्जनों मुद्दे हैं, लेकिन शायद पीएमओ ने ए. राजा को बचाने की तैयारियों पर होमवर्क शुरू करना शुरू कर दिया है, जिसमें पीएमओ ने पांच जुलाई को एक पत्र लिखकर दूरसंचार विभाग से ट्राई की स्पैक्ट्रम पर सिफारिशें तलब की हैं। बजट सत्र में 2जी स्पैक्ट्रक घोटाले का मामला संसद के दोनों सदनों में इस कदर गरमाया था कि स्वयं प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को भी राजा के बचाव में यह बयान देना पड़ा था कि 2जी स्पैक्ट्रम की नीलामी की प्रक्रिया सही तरीके से हुई है। सरकार ने इसके लिए वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में उच्चाधिकार प्राप्त ईजीओएम का गठन भी करना पड़ा था, जिसे दूरसंचार नियामक यानि ट्राई की सिफारिशों पर विचार करने का अधिकार दिया गया था। इस घोटाले में सबसे बड़ी विड़म्बना यह रही कि दावे के बावजूद ईजीओएम भी इस मसले को सुलझाने में सफल नहीं हो सका। इसलिए मानसून सत्र के दौरान महंगाई के बाद भ्रष्टाचार के मुद्दे में 2जी स्पैक्ट्रम घोटाले को लेकर विपक्ष यूपीए सरकार को कठघटरे में खड़ा करने को तैयार है। दरअसल, पीएमओ को इस बात की आशंका सता रही है कि ट्राई के स्पैक्ट्रम प्रबंधन व लाइसेंसिंग संबंधी प्रस्तावों पर विभिन्न पक्षों की तीखी प्रतिक्रिया नए विवादों को जन्म दे सकती है। यह भी गौरतलब है कि ट्राई ने अपनी सिफारिशों में कहा था कि जिन टेलीकॉम ऑपरटरों के पास 6.2 मेगाहर्ट्ज से ज्यादा 2जी स्पेक्ट्रम है उन्हें इसके लिए एकमुश्त अतिरिक्त भुगतान करना चाहिए। यही नहीं, ट्राई ने कहा था कि 2जी स्पैक्ट्रम की कीमत का निर्धारण 3जी स्पैक्ट्रम के मूल्य के आधार पर किया जाना चाहिए। इससे जीएसएम कंपनियां काफी नाराज हो गई। राज्यसभा में विपक्ष के नेता एवं भाजपा सांसद पहले ही कह चुके हैं कि 2जी स्पैक्ट्रम आवंटन में हुआ 60 हजार करोड़ रुपये का घोटाला देश का सबसे बड़ा घोटाला है। इस घोटाले की जांच में सीबीआई द्वारा मंत्रालय और दूरसंचार विभाग के विभिन्न कार्यालयों में छापामारी भी की थी, लेकिन प्रधानमंत्री के दूरसंचार मंत्री ए. राजा के बचाव में आए बयानों पर भी विपक्ष खासकर प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने गंभीर आपत्ति जताई है। बहरहाल इस मामले को पीएमओ अपने जिम्मे लेने के मूड़ में नजर आ रहा है ताकि ए. राजा पर इस मामले की आंच न आ सके। शायद इसी कारण प्रधानमंत्री कार्यालय यानि पीएमओ ने ए. राजा बचाव की तैयारियों के तहत मानसून सत्र में विपक्ष के हमले से बचने के लिए अभी से दूरसंचार विभाग से स्पेक्ट्रम पर भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) की सिफारिशों का ब्यौरा मांगा है। सूत्रों की माने तो पीएमओ इस बात को लेकर पहले ही आश्वस्त होना चाहता है कि स्पैक्ट्रम आवंटन के मामले में टेलीकॉम रेगुलेटर की सिफारिशों का पालन हुआ है या नहीं। हालांकि स्पैक्ट्रम के आवंटन के जिन मामलों को लेकर विवाद है, उनको लेकर ट्राई ने अपनी सिफारिशों में बाद में फेरबदल भी किया है। इससे पहले भी टूजी स्पैक्ट्रम पाने वाली कंपनियों के बारे में पीएमओ ने जानकारी इकट्ठी कर ली थी। यह सर्वविदित है कि दूरसंचार मंत्रालय ने वर्ष 2006 से लेकर 2008 के बीच 11 मोबाइल सेवा देने वाली कंपनियों को टूजी स्पैक्ट्रम आवंटित किया था, जिसमें दूरसंचार विभाग (डॉट) द्वारा इन कंपनियों को स्पैक्ट्रम आवंटित करने के लिए निविदा प्रक्रिया का रास्ता न अपनाने हुए इनमें से कुछ कंपनियों ने सीधे अपने लाइसेंस बेच भी दिए थे। यही वजह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय इसकी जवाबी रणनीति तैयार करने के लिए जानकारियां मांगनी शुरू कर दी है।

अटल फोर्मेट पर बढ़ेगी भारत-पाक वार्ता!

ओ.पी. पाल
भारत और पाकिस्तान के बीच आपसी विश्वास की बहाली कायम करने के मकसद से दोनों देशों के बीच विदेश मंत्री स्तरीय वार्ता के लिए भारतीय विदेश मंत्री आज पाकिस्तान जा रहें हैं। जिस प्रकार पाकिस्तान जाने से पहले भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व करने वाले विदेशमंत्री एसएम कृष्णा ने विपक्ष को विश्वास में लेने की पहल की है उससे लगता है कि भारत और पाकिस्तान किसी बड़े उद्देश्य को लेकर कदम बढ़ाने के प्रयास में हैं। ऐसा विशेषज्ञ भी मानते हैं कि दोनों देशों के बीच महत्वपूर्ण मुद्दों पर बातचीत के उस कमद को मनमोहन सरकार आगे बढ़ाना चाहती है जिसकी शुरूआत अटल बिहारी सरकार ने की थी।
मुंबई में 26/11 आतंकी हमले के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता को स्थगित कर दिये जाने के बाद लगने लगा था कि अब दोनों देशों के बीच कभी संबन्धों में सुधार की गुंजाइश नहीं रहेगी, लेकिन पडौसी होने के नाते भारत ने आतंकवाद पर सख्त रवैया अपनाते हुए पाकिस्तान के साथ बातचीत शुरू करने की पहल की। हालांकि मुंबई आतंकी हमले के बाद दोनों देशों की बीच आई तल्खी को दूर करने के प्रयास में पहली बार 25 फरवरी 2010 को नई दिल्ली में सचिव स्तरीय वार्ता हुई, जो बेनतीजा रही, लेकिन भूटान के थिम्पू शिखर सम्मेलन में दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों ने एक-दूसरे देश के प्रति पनपी अविश्वास की खाई को दूर करने और संबन्धों को सुधार करने की पहल की। इसी पहल पर फरवरी में इस्लामाबाद में सचिव स्तरीय और फिर दो दिन बाद गृह मंत्री स्तर पर वार्ता हुई, जिसे कहीं हद तक विश्वास बहाली का संकेत माना जा रहा है। उसी संकेत का नतीजा है कि 15 जुलाई को इस्लामाबाद में ही विदेश मंत्री स्तरीय वार्ता में महत्वपूर्ण मुद्दों पर बातचीत होने की संभावना है। शायद यही कारण है कि बातचीत के लिए पाकिस्तान के तीन दिवसीय दौरे पर जाने से पहले यूपीए सरकार विपक्ष को विश्वास में लेकर आगे बढ़ना चाहती है, जिसके लिए विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने लोकसभा में विपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्षी नेता अरुण जेटली से मुलाकात करके बातचीत के मुद्दों पर चर्चा की है। हालांकि कृष्णा ने प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी से भी मुलाकात करके बातचीत के लिए की गई तैयारियों की जानकारी दी। पाकिस्तान से बातचीत से पहले विपक्ष को विश्वास में लेने की नीति के पीछे यूपीए सरकार की क्या कूटनीति हो सकती है इसके बारे में विदेश मामलों के विशेषज्ञ प्रशान्त दीक्षित मानते हैं कि ऐसा लगता है कि भारत इस बार पाकिस्तान से किसी महत्वपूर्ण और बड़े उद्देश्य को लेकर बातचीत करने के मूड़ में है। उनका मानना है कि पाकिस्तान से रिश्तों को लेकर जो शुरूआत राजग सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी और फिर मुंबई में सबसे बड़े आतंकी हमले के बावजूद यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने उसे दिशा देने का प्रयास किया है उससे लगता है कि भारत किसी बड़े उद्देश्य के साथ पाकिस्तान जा रहा है। हालांकि भारत का सबसे पहला और प्रमुख मुद्दा आतंकवाद ही होगा, लेकिन यदि दोनों देशों को आपसी विश्वास को कायम करना है तो वर्षो से लंबित मुद्दों पर भारत निश्चित रूप से बातचीत को आगे बढ़ाने पर सहमति बनाई जा सकती है। भारत व पाकिस्तान मामलों के जानकार विशेषज्ञ कमर आगा मानते हैं कि विदेश नीति में खासकर पाकिस्तान को लेकर गंभीर मुद्दों पर भारतीय राजनीतिक दलों में ज्यादा विभाजन नहीं है। इसलिए दोनों देशों की वार्ता को आगे बढ़ाने का फार्मेट तो अटल बिहारी वाजपेयी का ही है यूपीए सरकार तो केवल इस बदलते हालात में उसे दिशा देने का काम कर रही है। इसलिए संसद में पाकिस्तान के मुद्दे पर आपसी सहमति लेना सरकार की नीतियों का हिस्सा है। आगा कहते हैं कि यह सरकार और विपक्ष ही नहीं बल्कि पूरा देश चाहता है कि पाकिस्तान की धरती से भारत के खिलाफ आतंकवाद का खात्मा हो, इसलिए यह मुद्दा तो मौजूदा परिपेक्ष्य में भारत के लिए अहम होना ही चाहिए। इससे दोनों देशों के बीच विश्वास बहाली के साथ बेहतर सम्बन्ध कायम होना भारत-पाकिस्तान दोनों के हित में होगा।