ओ.पी. पाल
जम्मू-कश्मीर में बिगड़े हालातों को सुधारने के लिए जहां केंद्र सरकार राजनीतिक प्रक्रिया को एक बार फिर से सक्रिय करने की नीति के तहत अलगाववादी संगठन के एक गुट ने फिर एक बार सरकार से वार्ता की पेशकश को ठुकरा दिया है। कश्मीर घाटी में कानून और व्यवस्था पूरी तरह से चरमराने पर चिंतित राजनीतिक दलों ने केंद्र सरकार से राजनीतिक प्रक्रिया को शुरू करने पर जोर दिया जिसके लिए सरकार भी राजी हैं, लेकिन बातचीत की पेशकश को ठुकराने वाले अलगाववादी संगठन जम्मू एवं कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने सरकार की वार्ता को पाखंड बताते हुए यह कहकर उनके रूख में कोई बदलाव नहीं है से यह सबूत दे दिया है कि सीमापार की नीतियां ही अलगाववादी संगठनों में कूट-कूटकर भरी हुई हैं।
केंद्र सरकार और भारतीय राजनीतिक दल पहले से ही यह बात कहते आ रहे हैं कि जिस प्रकार से कश्मीर घाटी में हिंसक घटनाओं के लिए युवाओं, बच्चों और महिलाओं को पथराव के लिए आगे किया गया है वह सीमापार की उग्रवादी नीतियों का ही एक बड़ा हिस्सा है जो जम्मू-कश्मीर में शांति और भाईचारे के माहौल को बर्दाश्त नहीं करते। दरअसर अलगाववादी संगठन जिन मांग को लेकर घाटी के लोगों को गुमराह कर रहे हैं उनसे सीमापार के आतंकवादी संगठनों को अपनी गतिविधियों को चलाने में आसानी होगी, जिसे अब कश्मीर घाटी के लोग भी समझने लगे हैं। इसका सबूत जम्मू-कश्मीर की जनता खासकर कश्मीर घाटी के लोगों ने अलगाववादी संगठनों को पिछले एक दशक में हुए लोकसभा एवं राज्य विधानसभा चुनाव में दिया भी है। हाल में ही राज्यसभा में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा नेता अरुण जेटली ने कहा है कि जम्मू-कश्मीर के जेकेएलएफ या हुर्रियत जैसे अलगाववादी संगठन जिस प्रकार राज्य में उपद्रव कर रहे हैं उसमें सुरक्षा बलों पर पथराव करने की घटना नई नीति का हिस्सा है जिसके लिए महिलाओं, बच्चों और युवाओं को प्रशिक्षित किया गया है। केंद्र सरकार ने राजनीतिक दलों के सुझाव और राज्य सरकार से बातचीत करके घाटी के हालात को सुधारने की दिशा में जो दृष्टिकोण अपनाया है उसमें सरकार की मंशा एक सर्वदलीय दल को जम्मू-कश्मीर में भेजने और अलगाववादी संगठनों से वार्ता करना भी शामिल है। अलगाववादी संगठनों से सरकार की वार्ता वर्ष 2004 से अटकी हुई है। चार दिन पूर्व ही इसी नीति के तहत रिहा किये गये हर्रियत कांफ्रेंस के कट्टरपंथी धडे के नेता सैयद अली गिलानी की रिहाई हुई, जिसके बाद गिलानी ने कश्मीर घाटी में प्रदर्शन के दौरान तोड़फोड़, आगजनी, पथराव तथा सरकारी संपत्ति को क्षति पहुंचाने वाले तत्वों को अपने संगठन से अलग करार देते हुए अपील की थी कि संगठन के कार्यकर्ता और समर्थक शांतिपूर्ण प्रदर्शन करके अपनी मांगों के प्रति सरकार को चेताने का काम करे। गिलानी के इस बयान से केंद्र सरकार ही नहीं अन्य राजनीतिक दलों को भी लगा कि हुर्रियत जैसे संगठनों ने अपनी नीति में बदलाव किया है? लेकिन जिस प्रकार जम्मू एवं कश्मीर के अलगाववादी नेताओं ने केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम की वार्ता की पेशकश को तवज्जो नहीं दी है। हुर्रियत कांफ्रेंस के कट्टरपंथी धड़े के नेता सैयद अली गिलानी ने वार्ता की पेशकश यह कहकर ठुकरा दी है और कहा कि वह किसी भी तरह की वार्ता के पक्ष में उस समय तक नहीं हूं जब तक जम्मू-कश्मीर को विवादित क्षेत्र घोषित करके वहां से सेना को वापस नहीं बुलाया जाता और कश्मीर पर संयुक्त राष्ट में पारित प्रस्ताव को लागू नहीं किया जाता। जम्मू एवं कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) ने तो चिदंबरम की वार्ता के लिए पेशकश को 'सरासर पाखंड' करार दिया है। जबकि राज्य के अलगाववादी संगठन के नरमपंथी धड़े के नेता मीरवाइज उमर फारुक ने अभी चुप्पी साध ली है। हुर्रियत कांफ्रेंस और जेकेएलएफ जैसे अलगाववादी संगठन इस बात पर भी अड़े हुए हैं कि राज्य में लागू सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को भी खत्म किया जाए। जबकि भाजपा इसका विरोध कर कह चुकी है कि यदि सरकार कश्मीर घाटी से सेना हटाती है और सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को खत्म करती है तो इससे भारत की संप्रभुता प्रभावित होगी और सीमापार से भारत के खिलाफ गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा। जम्मू-कश्मीर की प्रमुख विपक्षी पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीपी) की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने सरकार की पहल पर भी कुछ ऐसा ही तर्क दिया है कि वार्ता से पहले केंद्र सरकार को राज्य में विश्वास बहाली पर जोर देते हुए कदम उठाने चाहिए। जम्मू-कश्मीर मामलों के विशेषज्ञ कमर आगा का कहना है कि कश्मीर घाटी में हुर्रियत जैसे अलगाववादी संगठन उसी प्रकार राज्य में शांति को बहाल नहीं होने देना चाहते, जिस प्रकार पाकिस्तान में बैठे आतंकी संगठनों को जम्मू-कश्मीर में शांति पसंद नहीं है। आगा का कहना है कि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कश्मीर घाटी में बिगड़ते हालातों के लिए सीमपार की साजिश जिम्मेदार है। केंद्र सरकार को कानून एवं व्यवस्था को बहाल करके राज्य की जनता में विश्वास पैदा करने की अधिक जरूरत है, जिससे अलगावावादी संगठनों के मंसूबों को खत्म किया जा सके, इसके लिए राजनीतिक प्रक्रिया को शुरू करना भी जरूरी है।
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