ओ.पी. पाल
छोंटे राज्यो के गठन का पक्ष तो हरेक राजनीतिक दल करता आ रहा है, लेकिन वायदे करने के बावजूद सत्ता में आते ही वह जनता की भावनाओं को समझना तो दूर अपने वायदे को भी ताक पर रख देते हैं। तेलंगाना की मांग इसी राजनीति के चक्रव्यूह में फंसी है। इसी मुद्दे पर
राष्ट्रीय लोकदल के प्रमुख चौधरी अजित सिंह से हुई बातचीत के अंश इस प्रकार हैं-
तेलंगन पर श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट और सिफारिशों पर आपकी क्या टिप्पणी है? इससे कोई नतीजा निकलता दिख रहा है?
देखिये श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट पर सभी का मानना है कि जो घोषणा गृह मंत्री ने की थी कि तेलंगाना बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। इस पर जो प्रतिक्रिया हुई वह ज्यादातर कांग्रेस के अंदरूनी झगड़ो का परिणाम थी, यही मामले की लटकाने को लटकाने के लिए किया गया, इसलिए कहा जा सकता है कि फिलहाल इसका नतीजा निकलता तो कतई नहीं दिख रहा है।
यह माना जा रहा है कि मामले को ठंडा करने और लटकाने की मंशा से ही यह समिति गठित की गई थी। कांग्रेस आंध्र की अंदरूरनी राजनीति में फंस गई है?
मैं कह ही चुका हूं कि श्रीकृष्ण समिति का गठन ही मामले को लटकाने के लिए किया गया था, जिसमें कांग्रेस की आपसी खींचतान वाली राजनीति सबसे बड़ी बाधा बनी रही और आगे भी यही स्थिति नजर आ रही है। जबकि तेलंगाना की मांग कोई नहीं नहीं है यह बहुत पुरानी है जब आंध्र प्रदेश बना था तभी से इसकी मांग उठ रही है। इसके लिए कई बड़े और हिंसक आंदोलन भी हुए। चुनाव के दौरान भी वहां की जनता अपनी मंशा जता चुकी है। 2004 के लोकसभा चुनाव में यूपीए गठबंधन के साझा न्यूनतम कार्यक्रम में भी तेलंगाना बनाने का वादा किया गया, लेकिन जनता की भावनाओं को कांग्रेस अब समझना भी नहीं चाहती वहां गांव-गांव में 9-10 साल बच्चे भी तेलंगाना की बात करते हैं।
दिसंबर 2009 में गृहमंत्री ने अलग तेलंगाना का ऐलान कर दिया था। इसके बाद केंद्र सरकार और कांग्रेस ने यू-टर्न ले लिया। क्या इससे हालात और पेचीदा नहीं हो गये हैं?
बिल्कुल तेलंगाना में हिंसक आंदोलनों के दबाव में कानून व्यवस्था को बिगड़ते देख गृह मंत्री ने तेलंगाना बनाने की प्रक्रिया को शुरू करने की घोषणा की थी, पर जो प्रतिक्रियाएं देखने को मिली वे सब कांग्रेस के आपसी मतभेद और अंदरूनी कलह के कारण हुई, जिसके कारण कांग्रेस इस मामले को लटकाने के लिए तरह-तरह की बातें कर रही है। श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट में दिये गये छह विकल्पों से भी नहीं लगता कि केंद्र सरकार या कांग्रेस तेलंगाना बनाने के लिए गंभीर है। सरकार यह भी जानती है कि तेलंगाना को लेकर आंध्र प्रदेश में अभी भी अस्थिरता बनी हुई है। ऐसा लगता है कि कांग्रेसनीत सरकार जो भी प्रक्रियाओं को अंजाम दे रही है वह सब मामले को टालने का संकेत है।
ऐसा नहीं लगता कि छोटे राज्यों के मसले पर राजनीति स्वार्थो की भेंट चढ़ रहे हैं? केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दल अपने नफे-नुकसान की सोचकर फैसले करते हैं?
जहां तक आंध्रा का सवाल है यदि केंद्र सरकार एक-दो साल पहले ही तेलंगाना बना देती तो शायद आज जिन प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ रहा है वो सामने न आता। इससे छोटे राज्यों के मामलों पर स्वार्थ की राजनीति स्वाभाविक ही है। यदि आप उत्तर प्रदेश की बात करें तो बुन्देलखंड के लिए कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने समन्वय समिति बनवाई थी और कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में भी राज्य के पुनर्गठन की मांग उठी जिसे कांग्रेस ने प्रस्ताव में भी शामिल किया। जब प्रधानमंत्री बनारस गये तो वे भी इस पर अपनी सहमति जता चुके थे। वहीं देखिये यूपी की मुख्यमंत्री मायावती ने भी छोटे राज्यों का पक्ष लिया और प्रधानमंत्री को कई बार चिट्ठियां भी लिखी, लेकिन अब कांग्रेस या कोई सत्तारूढ़ दल इस मसले पर बोलने को भी तैयार नहीं है।
एक सवाल यह भी पूछा जाता है कि आखिर कितने राज्य बनाए जाएं और इसका आधार क्या हो? क्या नए राज्य बनानेके लिए कोई पैरामीटर होने चाहिए?
छोटे राज्य बनाने का मामला नया नहीं है यह बहुत पुराना है। छोटे राज्यों को बनाने के लिए राज्य पुनर्गठन जो डेटा देता है वह भी सभी जानते हैं। यूपीए जैसे दुनिया के बड़े राज्यों में छठे नंबर पर है जहां अलग-अलग विकास और आर्थिक परिस्थितियों है लोगों की भाषाएं भी अलग हो जाती हैं। जहां तक छोटे राज्यों का आधार और पैरामीटर की बात है तो इन्हीं कारणों को देखकर छोटे राज्यों को बनाने की नीतियां बनाए जाने की जरूरत है।
यह सुझाव भी आया है कि राज्य पुनर्गठन आयोग बनाकर पता लगाया जाए कि वास्तव में कितने और राज्यों की जरूरत है?
राज्य पुनर्गठन आयोग बनाये भी गये हैं और बनाये जाने की जरूरत भी समझी जाती है लेकिन प्रशासनिक या विकास की दृष्टि आंकड़ प्रस्तुत किये जाते हैं, जबकि छोटे राज्यो को वहां के विकास और आर्थित परिस्थितियों के आधार पर बनाया जाना जरूरी है। यदि यूपी में हरित प्रदेश की ही बात करें तो वह देश के कई राज्यों से भी बड़ा हो सकता है।
बड़े राज्यों में किस तरह की प्रशासनिक व राजनीतिक मुश्किलें आप महसूस कर रहे हैं?
पूर्वांचल में छोटे-छोटे राज्य बनाए गये हैं उन्हें प्रशासनिक व राजनीतिक दृष्टि से नहीं बल्कि वहां के लोगों की समस्याओं के समाधान को दृष्टिगत रखते हुए बने, यूपी जैसे बड़े राज्य की स्थिति सबके सामने है, जहां हर क्षेत्र की समस्या अलग-अलग है और प्रशासनिक तथा राजनीतिक कठिनाईयों को देखते हुए सभी महसूस करते हैं कि छोटे राज्य बनने चाहिए।
क्या छोटे राज्य विकास की गारंटी है? झारखंड सहित कुछ राज्य अस्थिर राजनीति और भ्रष्टाचार के पर्याय नहीं बन गये हैं?
विकास के लिए तो मैं छोटे राज्यों की गारंटी की बात नहीं करता, लेकिन छोटे राज्यों में बड़े राज्यों की अपेक्षा विकास की संभावनांए अधिक महसूस की जा सकती है। विकास के लिए प्रशासनिक, राजनीतिक और जनता के बीच संवाद जरूरी है जो छोटे राज्यों में अधिक कारगर हो सकता है। जो भी छोटे राज्य बने हैं उनमें राजनीतिक और भ्रष्टाचार एक सोच समझने की जरूरत पैदा करने का संकेत देती है।
आप इस तर्क से कितना सहमत हैं कि छोटे राज्यों की संख्या बढ़ने से केंद्र कमजोर होगा या राष्ट्र की एकता और अखंडता पर इसका असर पड़ सकता है?
केंद्र कमजोर होने का तो कोई सवाल नहीं है यहां तो राज्यों की बात की जानी चाहिए। राज्य भी एक विशाल देश का ही हिस्सा है जिसके कारण मैं नहीं मानता कि इसका असर राष्ट्र की एकता या अखंडता पर पड़ेगा।
आप हरित प्रदेश के लिए आंदोलन चलाते रहे हैं। एक समय मायावती ने भी यूपी को चार भागों में बांटने पर सहमति दी थी। फिर पेंच कहां है?
हरित प्रदेश में पेंच यही है कि सत्तारूढ़ सरकार प्रजातंत्र में जनता की राय पर मुद्दे उठाने का कोई प्रयास नहीं करती। हरित प्रदेश के लिए आंदोलन भी हुए और सपा को छोडकर सभी राजनीतिक दल भी सहमत हैं, यहां तक कि मायावती भी छोटे राज्यों पक्षधर होने का दावा करती हैं, लेकिन आज तक यूपी सरकार ने केंद्र को हरित प्रदेश का प्रस्ताव तक नहीं भेजा। केंद्र सरकार भी तभी चेतती है जब कानून व्यवस्था बिगड़ने की संभावना नजर आती है।