कब तक रहेगा लालू-पासवान का साथ
ओ.पी. पाल
बिहार विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद राजद-लोजपा के गठबंधन की विफलता पर यह कहावत चरितार्थ होती नजर आई कि ‘हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेगे..। यानि कांग्रेसनीत यूपीए से अलग होकर लोकसभा चुनाव की तरह बिहार विधानसभा चुनाव में भी लालू-पासवान का मिलकर चुनाव लड़ने में जहां लालू को भारी नुकसान हुआ है तो वहीं पासवान को भी घाटा उठाना पड़ा है। इन चुनाव परिणाम से तो यही लगता है कि दोनों को ही यूपीए से अलग रहना रास नहीं आ रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या लालू-पासवान भविष्य में गठबंधन में रहेंगे या नहीं।
बुधवार को बिहार विधानसभा के चुनाव के परिणाम को देखकर राजद-गठबंधन बैकपुट पर नजर आया। मुस्लिम, यादव और दलित समीकरण के आधार पर गठबंधन करके चुनाव मैदान में उतरी लालू-पासवान की दोस्ती को कतई उम्मीद नहीं थी कि इन चुनाव में धर्मनिरपेक्षता या जातिवाद अथवा वंशवाद की राजनीति धरातल पर आ जाएगी, लेकिन इन सब राजनीतियों पर राज्य में विकास का मुद्दा भारी रहा जिसे चुनाव परिणाम ने साबित भी कर दिया है। राजद और लोजपा यूपीए के घटक दल थे, लेकिन वर्ष 2009 में 15वीं लोकसभा के चुनाव में अलग होकर चुनाव लड़े, जिसका नुकसान कांग्रेस को तो हुआ ही, लेकिन राजद-लोजपा गठबंधन को भी इसका लाभ नहीं मिल सका। यानि लालू की सीटे तो कम हुई थी वहीं लोजपा को तो लोकसभा में खाता खोलने का भी मौका नहीं मिला। जबकि इन बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम भी लालू यादव व पासवान के गठबंधन करके फिर जोर अजमाइश की, जिसमें पासवान के साथ लालू को भी गहरा झटका लगा है। हालांकि राजद-लोजपा को उम्मीद थी कि जद(यू)-भाजपा गठबंधन के मुकाबले उनका गठबंधन बिहार की राजनीति पर हावी रहेगा। राजग के विकास के मुद्दे को नकारात्मक रूप से पेश करने और नीतिश पर निजी कटाक्ष करने में भी लालू-पासवान की दोस्ती ने कोई कसर नहीं छोड़ी, वहीं कांग्रेस से दूरी बनाकर राजद-लोजपा ने केंद्र पर भी निशाने साधे और मुस्लिम, यादव तथा दलित फैक्टर के सहारे चुनाव लड़ा। उधर नीतिश ने नरेन्द्र मोदी को नहीं आने दिया तो राजद-लोजपा से मस्लिम वोट बैंक भी खिसका और पासवान के दलितो के वोट बैंक को नीतीश ने महादलित का नारा दिया तो नीतीश को उसका लाभ मिला और लालू-पासवान हाथ मलते रह गये। शायद लालू-पासवान मौजूदा राजनीति या बिहार के मिजाज को समझने में भी चूक कर गये कि जनता क्या चाहती है। वर्ष 2005 के चुनाव में बिहार विधानसभा में राजद के 54 और लोजपा के दस विधायक थे, लेकिन इस बार दोनों को ही कुल 30 सीटों पर संतोष करना पड़ा। लालू व पासवान की इस दोस्ती में यही कहावत चरितार्थ होती नजर आती है कि हम तो डूबेंगे...तुमको भी ले डूबेंगे। कुछ यूं भी कहा जा सकता है कि लालू व पासवान कितने पास हैं और कितने दूर हैँ? लालू व पासवान का साथ लालू यादव के शासनकाल में भी रहा है, लेकिन यूपीए से अलग होने पर लालू की राजनीति धरातल पर आ रही तो उससे कहीं ज्यादा नुकसान पासवान को भुगतना पड़ रहा है। शायद लालू की मजबूरी थी कि वे पासवान को अपने साथ लें, क्योंकि अगर पासवान कांग्रेस के साथ चले जाते तो लालू मुश्किल में पड़ सकते थे। लेकिन राजनीति के लाभ और हानि में पुराने दोस्तों का यह गठबंधन उन्हें अब भारी पड़ता नजर आ रहा है। अब यही सवाल उठ सकते हैं कि लालू व पासवान की दोस्ती कब तक चलेगी, जिसका बिहार की राजनीति पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। ऐसे में दोनों ही नेताओं के सामने राजनीतिक संकट गहरा गया है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें