ओ.पी. पाल
बिहार विधानसभा के नतीजो ने बता दिया है कि राज्य में न तो कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी का ही जादू चल पाया और न ही कांग्रेस की नीतियों को बिहार की जनता ने स्वीकार किया। बिहार चुनाव ने कांग्रेस को यह भी सबक दिया है कि वह अभी अकेले दम पर बिहार में अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन को हासिल नहीं करने की हैसियत में नहीं है? जिस प्रकार से सत्तारूढ़ जद-यू व भाजपा गठबंधन को जनादेश मिला है उससे यह भी साफ हो गया कि बिहार में जातपात और हवाई राजनीति पर विकास के मुद्दे का जादू भारी पड़ा है।
कांग्रेस को यह अतिविश्वास था कि जिस तरह से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के अभियान से उत्तर प्रदेश में उम्मीद की किरण सामने आई थी, उसी तरह से बिहार में युवाओं को राजनीति में प्रोत्साहन उसकी खोई हुई राजनीति को वापस लाने में सफलता मिल सकती है। इसी रणनीति के तहत कांग्रेस पार्टी ने बिहार में अपनी चुनावी बिसात को बिछाते हुए पहली बार अकेले दम पर ही चुनाव लड़ने का फैसला किया। कांग्रेस ने चुनाव से पहले ही बिहार में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की रणनीति का तानाबाना बुनना शुरू कर दिया था और राज्य में युवक कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन के प्रभारी राहुल गांधी ने युवक कांग्रेस में संगठनात्मक चुनाव कराने का आधार तैयार करके अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर ही नहीं लगाई, बल्कि उन्होंने चुनाव के दौरान ताबड़तोड़ चुनावी जनसभाओं को संबोधित किया। लेकिन इसके विपरीत राहुल गांधी का जादू इतनी बुरी तरह से औंधे मुंह गिरा कि जिन 19 प्रत्याशियों के समर्थन में उन्होंने चुनावी सभाओं को संबोधित किया उनमें से 18 सीटों पर कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। बिहार में कांग्रेस को जमीन पर लाने के लिए कांग्रेस ने मुस्लिम-दलित कार्ड भी खेला और अधिकांश उम्मीदवार मुस्लिम वर्ग से बनाए गये, लेकिन कांग्रेस का मुस्लिम फैक्टर भी किसी काम नहीं आ सका। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि बिहार में राजनीतिक जमीन को फिर से तैयार करने के लिए कांग्रेस की सभी रणनीतियां महंगी साबित हुई, जिसमें बिहार कांग्रेस का अध्यक्ष महबूब अली केसर के रूप में मुस्लिम चेहरा लाने के अलावा दलित चेहरे के रूप में केंद्रीय मंत्री मुकुल वासनिक को प्रभारी बनाना भी कांग्रेस का रास न आना शामिल है। इन चुनाव में कांग्रेस छह सीटों पर सिमट कर अपनी पिछली नौ सीटों को भी नहीं बचा पाई। जबकि कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और केंद्रीय मंत्रियों की चुनाव प्रचार में जान फूंकी, लेकिन इसके बावजूद बिहार में कांग्रेस की राजनीति जमीन धरातल से भी नीचे जाती दिखाई दी। इन चुनाव परिणाम को देखने से साफ है कि बिहार में कांग्रेस का झंडा लगभग उखड़ने के कगार पर है। शायद इसीलिए कांग्रेस के सचिव एवं प्रवक्ता मोहन प्रकाश भी यह कहते नजर आए कि इन चुनाव परिणाम को देखते हुए लगता है कि अगले बीस साल तक बिहार में कांग्रेस अकेले दम पर चुनाव की नैया पार नहीं लगा सकेगी। कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी का कहना है कि कांग्रेस बिहार में पार्टी की पृष्ठभूमि के पुनर्निर्माण के लिए लगातार प्रयास को जारी रखेगी। राजनीतिशास्त्र के विशेषज्ञों की माने तो केंद्र में सत्तासीन होने के बावजूद बिहार में यह नाकामी कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है, जिसका कारण चुनाव के दौरान महाराष्ट्र में आदर्श सोसाइटी घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल में हुआ करोड़ों का हेर-फेर और 2जी स्पेक्ट्रम में अरबों रुपए के घोटाले ने शायद लोगों के निर्णय को अंतिम क्षणों में बदल डाला, जिसने राहुल गांधी के जादू को भी बेअसर साबित कर दिया। बकौल कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी अब कांग्रेस के सामने यही चुनौती होगी कि वह बिहार में शून्य से कांग्रेस को शुरूआत करनी होगी।
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