सोमवार, 21 जून 2010

गैस पीड़ितों के जख्मों पर पहले क्यों नहीं लगा मरहम!


ओ.पी. पाल
भोपाल गैस त्रासदी पर बने मंत्रि समूह ने केंद्र सरकार से जो सिफारिशें करने का फैसला किया है उसी मांग को लेकर गैस पीड़ित पिछले साढ़े 25 साल से आंदोलनरत हैं। इस कांड पर यदि पहली बार गठित किये गये जीओएम किसी ठोस नतीजे पर पहुंचने के लिए गंभीर होता तो शायद कांग्रेस की इस मुद्दे पर जो फजीहत हो रही है वह न होती और पीड़ितों को राहत भी मिल जाती। ऐसे में सवाल है कि अदालत के फैसले के बाद चौतरफा घिरता देख कांग्रेस ने अपना दामन बचाने के लिए इस मुद्दे पर कहीं ज्यादा ही तेजी से सजगता दिखाई है। विशेषज्ञ मानते हैं कि जीओएम यानि मंत्रि समूह की केंद्र सरकार को की जा रही सिफारिशों को लागू करने के लिए •भी सरकार को ऐसी ही तीव्रता दिखाने की जरूरत है, वहीं दोषियों को सख्त सजा दिलाने के साथ उन राजनीतिज्ञो को भी कटघरे में लाकर खड़ा करने की जरूरत है जो इस मामले में दोषियों को बचाने के प्रयास में जुटे रहे।दुनिया की सासे बड़ी औद्योगिक त्रासदी के रूप में साढ़े 25 साल पहले भोपाल गैस कांड में गत सात जून को आए अदालत के फैसले ने लाखों गैस पीड़ितों के जख्मों को जिस प्रकार हरा कर दिया था तो उस पर राष्टÑीय ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहस तो छिड़नी ही थी, खासकर यूनियन कार्बाइड के प्रमुख एवं अमेरिकी नागरिक वॉरेन एंडरसन का साफ बचकर चला जाना तत्कालीन कांग्रेस की केंद्र और राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा करता नजर आया। इस फैसले के बाद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने आनन फानन में केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदांरम की अध्यक्षता में एक नौ सदस्यीय मंत्री समूह का गठन कर दिया। भोपाल गैस कांड पर लीपापोती करने, दोषियों को बचाने के प्रयास, मामलों को हल्की धाराओं में दर्ज कराने और मुख्य आरोपी वॉरेन एंडरसन को बचाकर उसे भगाने जैसे सभी आरोपों में कांग्रेस चौतरफा घिरती नजर आई, क्योंकि हादसे के दौरान केंद्र में राजीव गांधी और मध्य प्रदेश में अर्जुन सिंह की सरकार थी। विशेषज्ञ प्रो. एसके शर्मा का मानना है कि अदालत के फैसले के बाद कांग्रेस का अपना दामन बचाने के लिए ही जीओएम गठित करके उससे तेजी से अपनी रिपोर्ट तैयार करने की केंद्र सरकार द्वारा हिदायत दी गई। तीन दिन की लगातार हुई बैठकों में जीओएम ने भोपाल गैस पीड़ितों के हित में जो नतीजे निकालें हैं उनमें भी कांग्रेस कटघरे में आने से नहीं बच सकती। शर्मा कहते हैं कि भोपाल गैस कांड पर केंद्र सरकार ने जा पहली बार मंत्री समूह बनाया था तो वह 17 साल में 17 बैठकें करने के बावजूद किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा और उसके बाद 2008 में इस जीओएम का पुनर्गठन किया लेकिन पीड़ितों के जख्मों पर मरहम नहीं लग सका। सवाल उठता है कि यदि कांग्रेसनीत केंद्र सरकार द्वारा गठित जीओएम ने केंद्र सरकार से भोपाल कांड पर जो सिफारिशें करने का निर्णय लिया है वह निर्णय कांग्रेस नीत सरकार के इससे पहले गठित दो जीओएम क्यों नहीं ले सके? इससे साफ जाहिर है कि इससे पहले गठित जीओएम पीड़ितों के हितों को नजरअंदाज करके हादसे के दोषियों और उन्हें बचाने वाले राजनीतिज्ञों की करतूतों पर पर्दा डालने के लिए लीपापोती ही करते रहे हैं। शायद पहले दो जीओएम को उस समय अहसास नहीं होगा कि अदालत का फैसला भविष्य में आग उगल सकता है? विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि 2/3 दिसांर 1984 को हुए इस हादसे पर जीओएम की सिफारिशों को भी उतनी तेजी से ही सरकार को लागू करने की जरूरत है जितनी तेजी से चिदांरम के नेतृत्व वाले जीओएम ने पीड़ितों को राहत देने और दोषियों को सख्त सजा दिलाने के लिए सिफारिशों का खाका तैयार किया है। जहां तक मौजूदा जीओएम की सिफारिशों का सवाल है उसमें पीड़ितों को राहत देने के लिए 1500 करोड़ का पैकेज की सिफारिश के साथ ही मुख्य रूप से वॉरेने एंडरसन के प्रत्यर्पण के नये सिरे से प्रयास करने पर भी बल दिया गया है। इससे भी महत्वपूर्ण सिफारिश यूनियन कार्बाइड के रासायनिक विषैले कचरे को साइट से साफ करने की है। दरअसल भोपाल गैस के पीड़ित पिछले साढ़े 25 साल से सिफारिश में शामिल निर्णयों की मांग को लेकर आंदोलन करने के लिए सड़कों पर हैं। यदि इस प्रकार की कार्रवाई पहले से ही कर ली जाती तो अदालत के फैसले के बाद कांग्रेस की जो किरकीरी हुई है शायद इसकी नौबत कभी न आती और गैस पीड़ितों को भी राहत मिल सकती थी। विशेषज्ञों का तो यहां तक कहना है कि यदि कांग्रेस को अपने दामन पर लगे दाग को साफ करना है कि तो सरकार को यूनियन कार्बाइड से जुड़े लोगों को सजा दिलाने के साथ ही दोषियों को बचाने के लिए लीपापोती करने वाले राजनीतिज्ञों को भी कटघरे में खड़ा करने की जरूरत है।

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