बुधवार, 9 जून 2010

कश्मीरियों का विश्वास खोते अलगाववादी संगठन!

ओ.पी. पाल
जम्मू-कश्मीर में हिंसा के हिमायती हुर्रियत जैसे अलगाववादी संगठन बार-बार सरकार के वार्ता प्रस्ताव को ठुकराते आ रहे हैं जिनके सरकार से वार्ता की टेबल पर न आने का कारण शायद इन संगठनों का जनता के प्रति अपना विश्वास खोना माना जा रहा है। अलगाववादी संगठनों को नो के दशक के बाद कश्मीर लगातार प्रभाव घटता नजर आ रहा है जिसका गवाह बीस के दशक में हुए दो विधानसभा व दो लोकसभा चुनाव भी बने हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि जम्मू-कश्मीर में अमन-चैन के घोर विरोधी और नकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले अलगाववादी संगठनों की वार्ता में कोई दिलचस्पी नहीं है,जो कश्मीर में पटरी पर लौट रहे जन-जीवन से शायद इतना बौखलाए हुए हैं कि वे सरकार से ऐसी मांगे पूरी करने का बहाना बना रहे हैं जिनके पूरा होते ही कश्मीरी जनता फिर से अलगाववाद के चक्रव्यूह में फंस जाएगी।
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की हाल में संपन्न हुई जम्मू-कश्मीर की दो दिवसीय यात्रा के एजेंडे में राज्य में कश्मीरी अलगाववादियों के दोनों संगठनों हुर्रियत कांफ्रेंस और मुजफ्फराबाद स्थित यूनाइटेड जिहाद काउंसिल से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की वार्ता का प्रस्ताव भी शामिल था, लेकिन इस प्रस्ताव को अलगाववादी संगठनों ने ठुकरा दिया है। यही रवैया इन संगठनों ने पिछले दिनों केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदांरम के कश्मीर दौरे के समय अपनाया था। विशेषज्ञों की माने तो कश्मीर में सरकार द्वारा विकास को दी जा रही तरजीह के कारण राज्य की जनता का विश्वास सरकार के पक्ष में है और अलगाववादी संगठन जनता का विश्वास लगातार खोते जा रहे हैं। हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठनों के पास कभी विकास का मुद्दा तो रहा नहीं और जनता भी उनकी नीतियों को जान रही है तो ऐसे में सरकार से वार्ता करने के लिए हुर्रियत कान्फ्रेंस और यूनाइटेड जिहाद काउंसिल हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। अलगाववादी संगठनों के कश्मीर में घटते प्रभाव के बारे में विशेषज्ञों का तर्क है कि वर्ष 2000 तक राज्य में अलगाववादी संगठनों का बोलबाला था जिनकी एक आवाज पर कश्मीर की जनता उनका साथ देती थी और चुनाव के दौरान बहिष्कार जैसे मुद्दे पर ये संगठन सरकार के खिलाफ सफल रहे, लेकिन गत 2003 के विधानसभा और 2004 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिला कि कश्मीर की जनता अलगाववादी संगठनों के चुनाव बहिष्कार की घोषणा को नजरअंदाज करती नजर आई। वर्ष 2008 के विधानसभा और 2009 के लोकसभा चुनाव में तो हुर्रियत कान्फ्रेंस और यूनाइटेड जिहाद काउंसिल बैकपुट पर नजर आई जिसमें इन संगठनों ने चुनाव का बहिष्कार करने का ऐलान किया, लेकिन कश्मीर की जनता ने मतदान के दौरान पिछले सभी रिकार्ड तोड़कर शायद यह संदेश दिया कि सरकार द्वारा कराए जा रहे विकास के सामने अलगाववाद कोई मायने नहीं रखता। इन चुनावों में अलगाववादी संगठनों के नेताओं ने भी अपनी किस्मत आजमाई और सभी ने अपनी जमानते जत कराई। विशेषज्ञ डा. श्याम सिंह शशि मानते हैं कि पंजाब की तरह जम्मू-कश्मीर की स्थिति भी तेजी के साथ सुधर रही है और पर्यटक भी भरपूर संख्या में कश्मीर जैसे पर्यटक स्थलों पर बेखौफ जा रहे हैं। सरकार ने यदि इसी प्रकार से विकास कार्यो को जारी रखा तो अलगाववादी संगठन स्वत: ही घुटने टेकने को मजाूर हो जाएंगे। हुर्रियत कान्फ्रेस का नेतृत्व कर रहे मीर वाइज उमर फारूख ने सरकार से वार्ता का प्रस्ताव को पहले अपनी मांगों को पूरा करने का बहाना करके ठुकराया है। भारत-पाकिस्तान के मामलों के जानकार विशेषज्ञ कमर आगा का मानना है कि कश्मीर के अलगाववादी संगठन जो कई गुटों में बंट चुके हैं की दिलचस्पी राज्य में अमन-चैन बनाने की नहीं है। यही कारण है कि हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे संगठन सरकार से वार्ता भी नहीं करना चाहते। श्री आगा मानते हैं कि इन संगठनों को पाकिस्तानी आतंकी संगठनों का भी समर्थन मिला हुआ है इसलिए इन संगठनों ने कश्मीर मे जेहाद को अंजाम देना शुरू किया जो हमेशा विकास में बाधक बने हुए हैं, हालांकि कश्मीर में विकास हो रहा है और सरकार पैकेज भी दे रही है। राज्य में नकारात्मक गतिविधियों के कारण अलगाववादी संगठनों ने धीरे-धीरे जनता का विश्वास भी खो दिया है। जाहिर सी बात है कि सरकार इन संगठनों से वार्ता में कश्मीर के अमन-चैन और विकास की बात करेगी इसलिए भी ये संगठन वार्ता से दूर भाग रहे हैं। आगा मानते हैं कि कश्मीर के अलगाववादी संगठनों ने किसी भी सकारात्मक दृष्टि से कोई काम नहीं किया और केवल उसी नजरिए पर अपनी गतिविधियों से राजनीति कर रहे हैं जो पाकिस्तान का नजरिया है। ऐसे में जरूरत है कि भारत को कश्मीर में रचनात्मक और विकास कार्यो से जनता में अपनी पैठ बनाये रखनी है ताकि कश्मीर में पूर्ण रूप से शांति और आपसी सद्भाव कायम किया जा सके। यही संदेश प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने भी अपनी कश्मीर यात्रा के दौरान दिया है।


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