ओ.पी. पाल
कश्मीर घाटी में पिछले कुछ सालों से देखा जा रहा है कि जा अमरनाथ यात्रा आरम्भ होती है तो उसी समय अलगावादी संगठन हिंसा पर उतर आते हैं, लेकिन यह सा जानते हुए भी जम्मू-कश्मीर सरकार कानून व्यवस्था को बहाल रखने के लिए कोई अग्रिम नीति नहीं बना पाती, जिससे घाटी के हालात बाद से बादतर हो जाते हैं। विशेषज्ञों और रणनीतिकारों का मानना है कि जम्मू-कश्मीर की जनता का विश्वास खोते जा रहे अलगाववादी संगठनों की बौखलाहट इसलिए भी बढ़ गई है कि भारत और पाक के बीच बातचीत पटरी पर चढ़ रही है और राज्य का पर्यटन विकास भी पटरी पर है, इसलिए उनके मिशन को सरकार की नीतियों से जो चुनौती मिल रही है। ऐसे में राज्य की कानून व्यवस्था और हालात को अस्थिर करने की मंशा के साथ अलगाववादी संगठन किसी भी अभियान के दौरान सड़कों पर हिंसात्मक आंदोलन शुरू करते आ रहे हैं, जिस पर लगाम लगाने के लिए राज्य सरकार को ठोस कदम उठाने की जरूरत है।
जम्मू-कश्मीर में सक्रीय अलगावावादी संगठनों से वार्ता करने के लिए पिछले दिनों ही राज्य के दौरे पर गये प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और उससे पहले गृहमंत्री पी. चिदांरम ने भी प्रस्ताव रखा था, लेकिन हुर्रियत कांफ्रेंस ने सरकार के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। केंद्र सरकार की योजनाओं और राज्य सरकार की नीतियों से जिस प्रकार से जम्मू-कश्मीर में विकास पटरी पर आने लगा तो वहां की जनता को भी अलगाववाद की नीतियों में खोट नजर आने लगा। इसका प्रमाण इससे पता चलता है कि जम्मू-कश्मीर में गत 2003 के विधानसभा और 2004 के लोकसभा चुनाव में अलगाववादी संगठनों के चुनाव बहिष्कार की घोषणा को नजरअंदाज करते हुए राज्य की जनता ने उन्हें नकारा है और इससे भी ज्यादा वर्ष 2008 के विधानसभा और 2009 के लोकसभा चुनाव में हुर्रियत कान्फ्रेंस और यूनाइटेड जिहाद काउंसिल पूरी तरह बैकपुट पर नजर आई जिसमें अलगावादी संगठनों के उम्मीदवारों को अपनी जमानत बचाने का भी मौका नहीं मिला। विशेषज्ञों की माने तो सीमापार आतंकवादियों का समर्थन इन संगठनों को अभी भी मिल रहा है, जो कभी भी भारत और पाकिस्तान को बेहतर संबंधों के लिहाज से पचा नहीं पाते। पिछले कई सालों से यह देखने को मिला है कि कश्मीरी अलगाववादी संगठनों ने अपना फन अमरनाथ यात्रा शुरू होने से एनवक्त पर उठाया है और राज्य खासकर घाटी में हिंसा को बढ़ावा दिया। दो साल पहले तो अमरनाथ यात्रा के दौरान तत्कालीन सरकार की नीतियों के कारण अमरनाथ यात्रा के सम्बन्ध में बने श्राइन बोर्ड का विवाद इतना गहराया कि उस पर संसद भी ठप्प होती नजर आई थी और जम्मू और कश्मीर घाटी आमने सामने थी। इस सप्ताह सोपोर चलो मार्च के नाम से अलगावादी संगठनों ने घाटी में जिस प्रकार का उत्पात मचाया है यह कोई नई बात नहीं है इस प्रकार की हिंसा को अमरनाथ यात्रा के दौरान हमेशा देखा गया है। सवाल इस बात का है कि राज्य की सरकार को मालूम है कि अमरनाथ यात्रा के दौरान अलगाववादी संगठन अपनी हिंसात्मक गतिविधियों को तेज करे रहे हैं इसके बावजूद राज्य सरकार कानून व्यवस्था को दुरस्त रखने की दिशा में अग्रिम नीति तथा व्यवस्था बनाने में कभी सफल नजर नहीं आई। कश्मीर और पाकिस्तान के जानकार विशेषज्ञ कमर आगा का कहना है कि जम्मू-कश्मीर में अमन-चैन के घोर विरोधी और नकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले अलगाववादी संगठनों की राज्य में शांति और अमन चैन में कोई दिलचस्पी नहीं है, जिसके कारण कश्मीर में पटरी पर लौट रहे जन-जीवन से शायद इतना बौखलाए हुए हैं। राज्य में अलगावादी हिंसा से सीमापार के आतंकवादी संगठनों को भी भारत के खिलाफ एक मौका मिल जाता है। आतंकवादी संगठन और जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी संगठन इस बार इस बात से भी खफा हैं कि भारत और पाक बेहतर सम्बन्ध बनाने के लिए बातचीत का माहौल तैयार कर चुके हैं। आगा का कहना है कि कश्मीर की जनता हिंदुस्तान में ही रहना चाहती है, ऐसे में राज्य की पुलिस को भी आधुनिक प्रशिक्षण देने की जरूरत है और सेना और अर्द्धसैनिक बल भी जनता की भावनाओं को समझें। कमर आगा मानते हैं कि कश्मीर घाटी में बिगड़ते हालात के लिए राज्य सरकार भी ज्यादा जिम्मेदार है जिसका नेतृत्व कमजोर कहा जा सकता है। हालांकि केंद्रीय राजनीति को भी राज्य के विकास की योजनाओं को गांव-गांव तक ले जाने की रणनीति तैयार करनी चाहिए और अलगावावाद को कुचलने के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत है। भाजपा प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर का कहना है कि कश्मीर घाटी में पाकिस्तान और अलगावावादियों ने कम लागत-अधिक प्रभाव वाली नई रणनीति के तहत नौजवानों को हिंसा के लिए सड़कों पर उतार दिया है। उनका मानना है कि सीमापार आतंकवाद और कश्मीरी अलगाववाद के गठजोड़ की रणनीति से अमरनाथ यात्रा को बाधित करने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसे में केंद्र और राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि ठोस रणनीति से देश की आंतरिक सुरक्षा कायम की जाए।
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