गुरुवार, 22 जुलाई 2010

सुरक्षा और तालिबान पर नियंत्रण की कवायद!


ओ.पी. पाल अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर काबुल में शुरू हुए अंतर्राष्ट्रिय दाता सम्मेलन की धूरी अमेरिका की अफगान नीतियों पर आधारित मानी जा रही है, जिसमें अफगानिस्तान के विकास में सहयोग दे रहे देशों का करजई सरकार पर इस बात का दबाव बढ़ रहा है कि वह राष्ट्र की सुरक्षा और तालिबान पर नियंत्रण के मामले में आत्मनिर्भर बने। इसी मकसद से इस सम्मेलन को सार्थक बनाने का प्रयास है। हालांकि अफगान में भ्रष्टाचार, विकास, नागरिक प्रशासन और बुनियादी ढांचे जैसे मुद्दों पर भी यह सम्मेलन किसी ठोस नतीजे पर पहुंचने का प्रयास करेगा। लेकिन सवाल है कि क्या अमेरिकी सेना वापसी के बाद अफगान सरकार तालिबान का मुकाबला कर पाएगी? विशेषज्ञ तो मानते हैं कि शांति बहाली के लिए अमेरिका की यह नीति तालिबान की ताकत बढ़ने का संकेत है जिसके विकल्प में किसी ठोस सुरक्षा नीति बनाने की भी जरूरत है।
विदेश मामलों के विशेषज्ञ प्रशान्त दीक्षित मानते हैं कि अमेरिका जिस मकसद से अफगानिस्तान में आया था, वह उसमें शायद इसलिए सफल नहीं पा रहा है कि अभी तक अमेरिका के हाथ में अफगानिस्तान की नब्ज हाथ में नहीं आई और नही वह अफगानिस्तान की भोगोलिक परिस्थितियों को समझ पाया है। हां अमेरिका ने अन्य देशों को साथ लेकर अफगानिस्तान को विकसित करने की जो पहल की है वह अफगानिस्तान के हित में है, लेकिन अमेरिका, ब्रिटेन और नाटो सेना तालिबान की ताकत को कमजोर नहीं कर सकी। पिछले दिनों पुन: सत्ता संभालने के बाद राष्ट्रपति हामिद करजई ने तालिबानियों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का प्रस्ताव रखा था, जिसे लंदन में हुए एक अंतर्राष्ट्रिय सम्मेलन ने स्वीकार भी कर लिया गया था, लेकिन तालिबानी नेताओं द्वारा इस प्रस्ताव को एक सिरे से ठुकरा दिये जाने से समस्या ज्यों की त्यों खड़ी हो गई। अब अफगानिस्तान के भविष्य को कैसे सुधारा जाए उसके लिए काबुल में दाता देशों का एक अंतरार्ष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया गया। प्रशान्त दीक्षित का कहना है कि इस सम्मेलन में अमेरिका अपने दृष्टिकोण के साथ शामिल हुआ है, जो अपनी अफगान नीतियों को अन्य सहयोगी देशों के समक्ष रखने वाला है। अमेरिका यह भी चाहता है कि अफगानिस्तान राष्ट्र की सुरक्षा और तालिबान पर नियंत्रण को अपने हाथों में लेने के लिए आत्मनिर्भर बने। इसी उद्देश्य से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 28 मार्च को अचानक अफगानिस्तान की यात्रा करके अफगान में तालिबान को खत्म कराने के नाम पर तैनात अपने सैनिकों से मुलाकात ही नहीं की थी, बल्कि अफगान की स्थिति का जायजा भी लिया था। जहां तक अफगानिस्तान को पडोसी देशों के हस्तक्षेप से मुक्त राष्ट्र बनाने की के मुद्दे को भी इस सम्मेलन में विचारार्थ रखने की बात कही जा रही है। जैसा कि यह कहा जाता रहा है कि अमेरिका को अफगानिस्तान से निकलने की जल्दी है, लेकिन अमेरिका यह भी नहीं चाहता कि वह बिना तालिबान को कमजोर या उसे नेस्तनाबूद किये बिना अफगान से जाए। इसलिए अमेरिका ही नहीं सभी सहयोगी देश अमेरिका के उस प्रस्ताव का समर्थन करते हुए चाहते हैं कि 2014 तक अफगानिस्तान की सुरक्षा और तालिबान पर नियंत्रण उसी (अफगान सरकार) का हो। अमेरिका ने अफगानिस्तान की सेना को भी प्रशिक्षित करके वापस भेजा है, जिससे यह तो तय है कि अमेरिका की सेनाएं अगले साल से वापसी शुरू कर देगी। अफगान की शांति के जारी प्रयासों में अन्य मानवीय पहलुओं पर भी गौर करने की जरूरत है, जिसमें सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार और नागरिक प्रशासन मुहैया कराना एक बड़ी चुनौती है, हालंकि सभी मुद्दों पर अंतरार्ष्ट्रीय मंच पर चर्चा होनी है।
विदेश मामलों के जानकार एवं विश्लेषक कुलदीप नैयर तो मानते हैं कि तालिबान वाशिंगटन द्वारा ही एक कट्टरपंथियों का गठित किया हुआ बल है, जो आज उसी के लिए खतरा बना हुआ है। चिंता इस बात की है कि यदि अमेरिका उसी तरह की गलती अफगानिस्तान में दोहरा देता है उसने तालिबान के साथ मिलकर सोवियत संघ के खिलाफ दोहराई थी, तो अफगानिस्तान को विकसित करने की अब तक की जा रही कवायद पर पानी फिर जाएगा। नैयर मानते हैं कि यदि सोवियत संघ को परास्त करने के बाद अफगानिस्तान में तालिबान छोड़कर न जाता तो तालिबान का इतना बड़ा दायरा शायद ही कभी बढ़ता और न ही अमेरिका को अफगानिस्तान को मुक्त कराने के लिए तालिबान से युद्ध करने की नौबत आती। उसी समय की गलती का खामियाजा अभी तक भोग रहा है। कुलदीप नैयर मानते हैं कि यदि न्यूयार्क में 9/11 के हमले की घटना न होती तो अमेरिका तालिबान के खिलाफ अफगानिस्तान में यह अभियान भी न छेड़ता। फिर भी अमेरिका अफगानिस्तान के लिए निर्णायक स्थिति में है। लेकिन जिस प्रकार से अमेरिका अपनी सेनाओं को हटाने की बात कर रहा है तो उससे तालिबान के मनोबल बढ़ने का संकेत है। भले ही अफगानी राष्ट्रपति हामिद करजई भी दबाव में देश की सुरक्षा और तालिबान पर निंयत्रण करने का वादा कर रहे हों, लेकिन यह तय माना रहा है कि फिलहाल तालिबानी कुछ ढीले पड़े हैं और अमेरिकी सेनाओं की वापसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अफगानिस्तान सरकार तालिबान के सफाए में सक्षम नहीं लगती। आवश्यकता मात्र कमान में बदलाव की ही नहीं बल्कि सेनाओं की वापसी संबंधी अमेरिकी नीति में परिवर्तन की भी है। अब सवाल है कि अफगानिस्तान से तालिबान का सफाया कैसे हो? अफगान की शांति के लिए तालिबान के सफाए के अलावा और कोई चारा नहीं है। इस स्थिति में भारत सहायक की भूमिका निभा सकता है। दोनों देशों को तालिबान से लड़ने के लिए संयुक्त रणनीति बनानी होगी। अधिक नहीं, तो भी दोनों देशों को उस शून्य को भरने के उपायों के बारे में सोचना ही चाहिए जो अमेरिकी सेनाओं की वापसी से बनेगा।

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