मुंबई पर हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच कड़वाहट ने वैसा ही रूप ले लिया है, जैसा कारगिल युद्ध के बाद ले लिया था। कारगिल युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच संवाद बहाल करने की कोशिशों पर पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने आगरा शिखर वार्ता में पलीता लगा दिया था तो इस बार अपने अपने आकाओं के दिशा-निर्देशों पर पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने पैंतरा बदला है। तब की तरह अब भी पाकिस्तान आतंकवाद के मोर्चे पर बुरी तरह घिरा हुआ है। लेकिन गंभीर बात यह है कि दोषी होने के बावजूद पाकिस्तान का ही रुख आक्रामक है। वह ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ कहावत को चरितार्थ करता दिख रहा है, जबकि हम बुरी तरह रक्षात्मक दिख रहे हैं। आखिर हम रक्षात्मक क्यों दिखते हैं, क्या हमारी कूटनीति में कुछ गंभीर खामियां हैं? क्या अब समय आ गया है कि यूपीए सरकार अपनी पाकिस्तान नीति पर पुनर्विचार करे? आखिर पाकिस्तान ही वार्ता को विफल कराने में क्यों अड़ा हुआ है?
भारत-पाकिस्तान संबंधों के विशेषज्ञ प्रो. कलीम बहादुर कहते हैं कि पाकिस्तान की उग्रता और वार्ता को विफल कराने का राज किसी से छिपा नहीं है। मुंबई हमला मामले में आतंकी डेविड कोलमैन हैडली के खुलासे से उसकी नींद उड़ी हुई है। इस खुलासे में पाकिस्तानी सेना और आईएसआई घेरे में है, जिसके हाथों में पाकिस्तान की वास्तविक सत्ता है। फिर भारत ने पाकिस्तान की उसी दुखती रग पर हाथ रख दिया। इससे पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी का तिलमिलाना स्वाभाविक था। कुरैशी को यह भी पता है कि वे जिस देश के विदेश मंत्री हैं, वहां सेना और आईएसआई के खिलाफ जाना अपनी बर्बादी को निमंत्रण देना है। आप कहेंगे कि कुरैशी द्वारा भारतीय गृह सचिव की तुलना आतंकवादी हाफिज सईद से करने पर भी भारतीय विदेश मंत्री की चुप्पी गलत नहीं थी। अब किसी जिम्मेदार देश के गृह सचिव की तुलना आतंकवादी से करके पाकिस्तान ने अपनी हताशा ही जाहिर की है, जबकि भारत ने चुप रह कर साबित किया है कि वह पाकिस्तान की तरह अराजक नहीं, बल्कि जिम्मेदार राष्ट्र है। जिस देश के विदेश मंत्री को कूटनीतिक शिष्टता और मेहमान के आदर का एबीसीडी भी नहीं पता हो तो भारत इस पागलपन और ओछेपन का उसी लहजे में जवाब ही क्यों दे? मुझे लगता है कि भारत की पाकिस्तान नीति सही है। आप वार्ता नहीं करेंगे तो उसके चेहरे से नकाब कैसे हटाएंगे। हां, अब कूटनीतिक सावधानी बरतने की जरूरत है। कल की घटना से साफ हुआ है कि पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई से कन्नी काट रहा है। इसलिए इस मसले पर पाकिस्तान को दुनिया के मंचों पर घेरने और दबाव बनाने में महारत दिखानी होगी। विदेशी मामलों के एक अन्य विशेषज्ञ प्रशांत दीक्षित भी मानते हैं कि पाकिस्तान के आक्रामक तेवर से भारत को कोई घाटा होने वाला नहीं है। पाकिस्तान की उग्रता और भारत की चुप्पी के सवाल पर उन्होंने कहा कि भारत चुप नहीं संयत था। चुप रहने और संयत रहने में बड़ा अंतर है। सभी जानते हैं कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई दोनों देशों को समग्र वार्ता की राह पर आगे बढ़ने ही नहीं देना चाहती। पाकिस्तानी सेना और आईएसआई अभी डेविड कोलमैन हैडली के खुलासे से मुसीबत में है तो दूसरी बड़ी बात यह है कि यही दोनों वहां आतंकवाद के नाम पर कमाई कर मालामाल हो रहे हैं। इसलिए वार्ता सेना के दबाव में टूटी न कि भारत की उपेक्षा के कारण। पाकिस्तान ने भले ही आक्रामक रुख अपना कर हेडली प्रकरण से उपजे दबाव से खुद को बाहर करने का प्रयास कर रहा हो, लेकिन जिस प्रकार अभी इस मसले पर अमेरिका और पश्चिमी देशों के हित भारतीय हित से मेल खा रहे हैं, उससे पाकिस्तान का यह वार उसके काम नहीं आने वाला। वार्ता बंद करना कोई हल नहीं है। हां, यह सही है कि सत्ता के कई केंद्र और कठपुतली लोकतांत्रिक सरकार होने के कारण वार्ता किससे की जाय, यह एक मुश्किल भरा सवाल है, लेकिन भारत को पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए उसे वार्ता से इंकार नहीं करना होगा। हां, यह भी नहीं दिखाना होगा कि वह पाकिस्तान से बातचीत के लिए जल्दबाजी दिखा रहा है। कमजोर लोग जल्दी गुस्सा ही नहीं करते, बल्कि आक्रमण भी करते हैं। ऐसा ही पाकिस्तान के साथ हो रहा है।
पाकिस्तान-भारत संबंधों पर पैनी निगाह रखने वाले कमर आगा कहते हैं कि पाकिस्तान नीति में बदलाव के बदले भारत को कूटनीतिक बदलाव लाने होंगे। जो गिने चुने देश पाकिस्तान के साथ हैं, उनसे बातचीत कर पाकिस्तान को अलग-थलग करना होगा, साथ ही अमेरिका तथा पश्चिमी देशों के वर्तमान कठोर रुख को बनाए रखने का भी प्रबंध करना होगा। आगा कहते हैं कि पाकिस्तान जितनी बार वार्ता की मेज पर आएगा, उतनी ही बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी छवि और ताकत कमजोर होगी। चाहे वार्ता का कोई निष्कर्ष निकले या न निकले। आपको याद होगा कि कारगिल युद्ध के बाद जनरल परवेज मुशर्रफ ने आगार शिखर वार्ता को इसी प्रकार बेमानी साबित कर दिया था। लेकिन दुनिया के दबाव में उसे बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ संयुक्त घोषणा पत्र में यह लिखित भरोसा देना पड़ा कि पाकिस्तान अपनी भूमि का उपयोग भारत के खिलाफ नहीं करने देगा। आप कहेंगे कि इस संयुक्त घोषणा के बाद भी पाकिस्तान की नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया तो इसका लाभ क्या है। इसका लाभ यह है कि भारत उसे इसी घोषणा पत्र के सहारे घेरता रहा है और दुनिया भर में उसके खिलाफ माहौल बना है कि समझौते के बाद भी पाकिस्तान उसका पालन नहीं करता। ऐसे में पाकिस्तान की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहले से बुरी तरह घट चुकी साख और कमजोर ही हुई है। अब विदेश सचिव स्तर की वार्ता टूटने के बाद उसकी छवि को और झटका लगेगा। जहां तक भारत की विदेश नीति का सवाल है तो मैं न तो इसे कमजोर मानता हूं और न ही अपरिपक्व। लोकतांत्रिक और जिम्मेदार देश होने के नाते भारत को अपना विकल्प हमेशा खुला रखना होगा। यही उसकी कूटनीति भी है और इसमे कुछ भी गलत नहीं है।
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