भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लालबहादुर शास्त्री की सादगी और नम्रता उनके गुणों में से एक रही है, जिन्होंने प्रधानमंत्री होते हुए भी अमन जीवन सादगी और सरल स्वभाव को प्राथमिकता दी। शास्त्री की सादगी और सादे जीवन को प्रदर्शित करने वाले एक नहीं अनेक संस्मरण हैं, जिनके आधार पर लाल बहादुर शास्त्री को सादगी की प्रतिमूर्ति कहा जाता है।
उत्तर प्रदेश के मुगल सराय में शारदा प्रसाद नामक एक गरीब शिक्षक के परिवार में दो अक्टूबर 1904 को जन्मे लाल बहादुर शास्त्री स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद नौ जून 1964 को देश के तीसरे और दूसरे स्थायी प्रधानमंत्री के रूप में अपना पद ग्रहण किया। इससे पहले देश को आजादी मिलने के बाद शास्त्री जी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रुप में नियुक्त किया गया था। जो गोविंद बल्लभ पंत के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में प्रहरी एवं यातायात मंत्री बने। यातायात मंत्री के समय में उन्होनें प्रथम बार किसी महिला को संवाहक (कंडक्टर) के पद में नियुक्त किया। प्रहरी विभाग के मंत्री होने के बाद उन्होने भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए लाठी के जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारंभ कराया। वर्ष 1951 में जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व मे वह अखिल भारत काँग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। उन्होने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों मे कांग्रेस पार्टी के लिए समर्पित भावना से अपना योगदान दिया।
शास्त्री जी के जीवन पर प्रकाश डाला जाए तो अपने पिता शारदा प्रसाद और अपनी माता श्रीमती रामदुलारी देवी के तीन पुत्रो में से वे दूसरे थे, शास्त्रीजी की दो बहनें भी थीं। लाल बहादुर श्रीवास्तव के शैशव मे ही उनके पिता का निधन हो गया। 1928 में उनका विवाह गणेशप्रसाद की पुत्री ललितादेवी से हुआ और उनके छ: संतान हुई, जिनमें हरिकिशन शास्त्री, सुनील शास्त्री और अनिल शास्त्री ने प्रमुख रूप से राजनीति के क्षेत्र में अपने पिता का अनुसरण किया। उनकी शिक्षा हरिशचंद्र उच्च विद्यालय और काशी विद्यापीठ में हुई थी। यहीं से उन्हें "शास्त्री" की उपाधि भी मिली जो उनके नाम के साथ जुड़ी रही। स्नातक की शिक्षा समाप्त करने के पशचात वो भारत सेवक संघ से जुड़ गये और देशसेवा का व्रत लेते हुये यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरूआत की। शास्त्री का जीवन बचपन से ही विशुद्ध गाँधीवादी रहा और सारा जीवन सादगी से बिताया और गरीबों की सेवा में अपनी पूरी जिंदगी को समर्पित किया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में उनकी भागीदारी रही, और जेलों मे रहना पड़ा जिसमें 1921 का असहयोग आंदोलन और 1941 का सत्याग्रह आंदोलन सबसे प्रमुख है। उनके राजनैतिक दिग्दर्शकों में से पुरुषोत्तमदास टंडन, पंडित गोविंदबल्लभ पंत, जवाहरलाल नेहरू इत्यादि प्रमुख हैं। 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने टंडन के साथ भारत सेवक संघ के इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम किया। नेहरू मंत्रिमंडल मे गृहमंत्री के तौर पर उनका शामिल होना था। इस पद पर वे 1951 तक बने रहे। शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और इमानदारी के लिये पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है। उन्हे वर्ष 1966 मे भारत रत्न से सम्मनित किया गया। सादगी की प्रतिमूर्ति, हिम्मत के धनी लाल बहादुर शास्त्री ने ही जय जवान जय किसान का नारा दिया।
लाल बहादुर शास्त्री केंद्रीय रेल मंत्री भी रहे जिसके बारे में उनके सुपुत्र अनिल शास्त्री के संस्मरण हर किसी को भावुक करते हैँ। जब अनिल शास्त्री केवल आठ साल के थे तो दक्षिण भारत में भीषण रेल दुर्घटना के कारण शास्त्री ने अपनी जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया, अनिल शास्त्री इसलिए खुश थे कि अब उनके पिता परिवार में अधिक समय देंगे, लेकिन इस्तीफे के बाद शास्त्री जी ने कांगे्रस पार्टी के कार्यो में उससे भी अधिक कार्य किया यानि अनिल शास्त्री के अनुसार उनकी पिता से मुलाकात हुए एक-एक सप्ताह बीत जाता था। शास्त्री की सादगी और नम्रता उनके गुणों में शुमार रही है, यह स्वयं अनिल शास्त्री के संस्मरण से जाहिर है जिसमें अनिल शास्त्री कहते हैं कि जब उनके पिता प्रधानमंत्री बने तो मैने उनसे कहा कि वे अपने कमरे में कालीन बिछवा ले, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया। एक प्रेस कांफ्रेंस में जब एक अमेरिकी पत्रकार ने शास्त्री जी पूछा कि उनके बच्चे फैशनेबल पैंट-कमीज पहनते हैं और वे स्वयं सादा धोती कुर्ता, तो उन्होंने तत्काल जवाब दिया कि वे स्वयं एक गरीब अध्ययापक के पुत्र हैं और मेरे बच्चे एक प्रधानमंत्री के पुत्र। परिवार में भी वे ऊंचे औद्दे पर होते हुए सादी चारपाई पर ही सोते थे। अनिल शास्त्री अपने पिता के संस्मरण बताते हुए कहते हैँ कि 1965 के भारत-पाक युद्ध में वे ज्यादा लोकप्रिय हुए, क्योंकि युद्ध के समय देश में खाने की समस्या बनी तो उन्होंने खुद व्रत रखते हुए देशवासियों से आग्रह किया कि सप्ताह में एक समय खाना न खायें। अनिल शास्त्री को तीन जनवरी 1966 की वह सुबह भी याद है जब उसके पिता ताशकंद के लिए रवाना हो रहे थे, जो अपने पुत्र के गाल थपथपाते हुए बाहर निकले, लेकिन उन्हें नहीं मालूम था कि यह उनके पिता से अंतिम मुलाकात होगी।
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