ओ.पी. पाल
कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी और कुछ केंद्रीय मंत्रियों के बिहार दौरे के बाद राज्य में कांग्रेस को पुरानी राजनीतिक जमीन को हासिल करने की उम्मीद है। इसी खोई हुई राजनीतिक जमीन की बिसात को बिछाने के इरादे से कांग्रेस ने बिहार विधानसभा चुनाव में अकेले दम पर नैया को पार पाने को चुनावी अखाडे में कूदने का फैसला किया है। अभी तक बिहार में कांग्रेस ने 77 उम्मीदवारों की घोषणा की है।
कांग्रेस के लिए बिहार विधानसभा चुनाव उतने ही महत्वपूर्ण है जितने वर्ष 2012 में उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव अहमियत रखते हैँ। इसी दृष्टि से कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी के अलावा कई केंद्रीय मंत्रियों ने बिहार में कांग्रेस का जनाधार बढ़ाने की दिशा में दौरे किये। पहले चरण का चुनाव 21 अक्टूबर को होना है और कांग्रेस ने उम्मीदवारों के समर्थन में होने वाली जनसभाओं में भी केंद्रीय नेताओं को भेजने की रणनीति तैयार की है, जहां जरूरत पड़ेगी, तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा कांग्रेस युवराज राहुल गांधी सरीखे नेता भी बिहार जाएंगे। बिहार चुनाव को गंभीरता से लेते हुए कांग्रेस ने चुनाव से पहले ही संगठनात्मक चुनावों के बहाने ही अपनी मजबूत रणनीति को दिशा दी थी। बिहार में कांग्रेस संगठन को मजबूत बनाने और जनधार को पाने के लिए कांग्रेस ने राज्य इकाई की बागडौर एक मुस्लिम नेता सैयद महबूब अली कैसर को दी, तो राज्य का प्रभारी दलित नेता मुकुल वासनिक को बनाकर चुनावों में मुस्लिम-दलित समीकरण को मजबूत करने की रणनीति बनाई। कांग्रेस की प्रदेश इकाई में भी बिहार के लोगों की नब्ज टटोलने के अभियान में लगाया गया। मसलन कांग्रेस ने बीस साल पहले बिहार में जो रानीतिक जमीन खाई थी उसकी वापसी के लिए पूरी तरह से कमर कस ली है। हालांकि कांग्रेस ने वर्ष 2009 में ही 15वीं लोकसभा चुनाव में ही राजद-लोजपा से नाता तोड़कर चुनाव लड़ा था, हालांकि इसका लाभ न तो कांग्रेस और न ही राजद व लोजपा को मिल पाया था। लोजपा का तो लोकसभा चुनाव में खाता भी नहीं खुल पाया था। मौजूदा बिहार चुनाव में राहुल गांधी और कई केंद्रीय मंत्रियों के दौरों से राज्य में कांग्रेस को जो ऊर्जा मिली है उसे राज्य कांग्रेस ईकाई भी महससू कर रही है। इसी दम पर कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में अकेले ही चुनाव मैदान में कूदने का फैसला किया और सभी 243 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने की रणनीति तैयार की है। कांग्रेस प्रत्याशी और समर्थक बिहार की जनता को सत्तारूढ़ दल राजग की खामियों और कांग्रेस की नीतियों के प्रति जागरूक करने पर जोर दे रहे हैं। कांग्रेस के सामने राजग के जदयू और भाजपा के अलावा राजद-लोजपा गठबंधन हैं, जिसमें राजद-लोजपा धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ मिलकर चुनावी नैया को पार करने के प्रयास में है। कांग्रेस के महासचिव डा. शकील अहमद का मानना है कि राजद-लोजपा का बिहार में अब वो जनाधार नहीं रहा जिसको लेकर वे चुनाव मैदान मारना चाहते हैं और जहां तक सत्तारूढ़ राजग का सवाल है उसको लेकर भी बिहार की जनता में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की नीतियों के प्रति नाराजगी देखी जा रही है जिसका सीधा लाभ कांग्रेस को मिलना तय है।
कांग्रेस का मानना है कि पार्टी की प्रदेश इकाई की कमान सैयद महबूब अली कैसर को सौंपे जाने और केंद्रीय मंत्री मुकुल वासनिक को पार्टी का प्रदेश प्रभारी बनाए जाने से चुनावों में अल्पसंख्यकों तथा दलितों के वोट अधिक से अधिक पार्टी की झोली में पड़ेंगे। कांग्रेस में इन चुनाव के दौरान जिस प्रकार से उत्साहजनक माहौल देखने को मिल रहा है वह पिछले 15 सालों में नहीं मिला। इससे पहले अक्तूबर 2005 में हुए चुनावों में कांग्रेस को 9 सीटों और छह फीसदी मतों से ही संतोष करना पड़ा था। वर्ष 2005 के दौनों विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए एक और मायने में महत्वपूर्ण थे क्योंकि 243 सीटों में से पार्टी ने फरवरी में 84 और अक्तूबर नवंबर में 51 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। इसके विपरीत कांग्रेस इस बार सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही है। यह नहीं कांग्रेस बिहार में वर्ष 1952 से लगातार तीन विधानसभा चुनावों में सफलत रही और वर्ष 1952 में 239 सीटें, वर्ष 1957 में 210 सीटें और वर्ष 1967 में 195 सीटें हासिल कर सत्ता में रही है। जबकि वर्ष 1969 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 118 सीटें मिली, लेकिन उसने अन्य दलों के साथ सत्ता को अपने पास रखा और उसके बाद दो झटको के बाद वर्ष 1980 व वर्ष 1985 के चुनाव में अपनी ताकत दिखाई। इसी ताकत को फिर से हासिल करना इन चुनाव में कांग्रेस का मकसद है, जिसे उम्मीद की किरण भी नजर आ रही है।
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